यहां हर शख्स हर पल हादसा होने से डरता है
खिलौना है ,जो मिट्टी का फना होने से डरता है...
मशहूर
शायर राजेश रेड्डी का ये शेर मुझे लगातार कुछ दिनों से डरा रहा है. अभी
मैं कन्फ्यूज हूं कि क्या आप भी आजकल डरे हुए हैं या नहीं? लोकतंत्र में
लगे रोग को कौन से योग से मिटाया जाए.. समझ नहीं आता. मैं लोकतंत्र को
मजबूत करने की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहती हूं, मैं तो सिर्फ जीना चाहती
हूं.. सच के साथ, इज्जत के साथ, परिजनों के साथ, अपनों के साथ, परायों के
साथ.. यूं कहें तो सबके साथ.
मध्य प्रदेश में खनन माफियाओं के ‘गुंडे’ एक
पत्रकार का अपहरण कर उसे जिंदा जला दिये. जून महीने में यह दूसरी घटना है.
इससे पहले यूपी के शाहजहां पुर में जगेंद्र सिंह को जलाकर मार दिया गया और
जलाने वाले कोई और नहीं बल्कि पुलिस वाले थे जिन्होंने अखिलेश यादव के
मंत्री के इशारे पर इस घटना को अंजाम दिया था..(मैं यहां कथित लगाना जरूरी
नहीं समझती).
अखिलेश यादव
के मंत्री राममूर्ति वर्मा को क्या पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया? क्या सरकार
ने इस मुद्दे को इतनी गंभीरता से लिया कि आगे से कोई ऐसे अपराध को करने से
पहले दस बार सोचे? जवाब है -नहीं. यूपी सरकार ने तो आनाकानी की.. उनका बस
चलता तो केस भी दर्ज न होता वो तो भला हो मीडिया को जिसे जगेंद्र सिंह के
दस दिन बाद ही सही लेकिन ये समझ आ गया कि इस मुद्दे को उठाना जरूरी है.
खुद
जगेंद्र सिंह ने मरने से पहले अपना बयान दर्ज कराया था कि ‘मुझको गिरफ्तार
करना था… तो कर लेते मगर पीटा क्यों? और आग क्यों लगा दी?’ इतना ही नहीं
जगेंद्र सिंह ने मंत्री पर जलाने के आरोप लगाए. इसके बावजूद अखिलेश सरकार
अब तक यह कह रही है कि बिना जांच के मंत्री को नहीं हटाया जाएगा.
तो
जब यूपी में गुनाहगारों का पुलिस और प्रशासन कुछ नहीं बिगाड़ पा रही तो
एमपी में कैसे बिगाड़ लेगी? शायद यही बात रही होगी संदीप कोठारी को जलाने
वालों के मन में… तभी तो निडर होकर इसे अंजाम दे दिया.
अगर
यूपी में हुई घटना पर कड़ी कार्रवाई होती मंत्री हों या पुलिस वाले उन्हें
गिरफ्तार किया जाता. उन्हें कोर्ट तक घसीटा जाता तो शायद एक पल के लिए
अपराध से पहले कोई सोचता भी. अभी तो यह घटना आम होती जा रही है. जिसके
लिखने से कोई परेशानी है उसे ले जाओ जला दो. यूपी और एमपी में जांच की बात
तो चल रही है लेकिन ऐसा ना हो कि जब तक जांच पूरी हो तब तक कई जागेंद्र और
संदीप को अपनी जान की बलि चढ़ानी पड़े. एक के बाद होती ये घटनाए कई तरह के
सवाल खड़े करती हैं. ये दोनों घटना कहीं न कहीं लोकतंत्र में आलोचना की
घटती जगह का सबूत हैं.
आमतौर
पर पत्रकारों पर हमले की खबरें आती रहती हैं लेकिन यह ध्यान देने की बात
है कि जिन दो पत्रकारों की हत्या हुई है वे टीवी और अखबार के लिए नहीं
बल्कि फेसबुक पर लिखते थे. ये दोनों फेसुबक पर ही खनन माफियाओं के खिलाफ
अपनी मुहिम चला रहे थे. फेसबुक की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता
है कि यूपी और एमपी में खबर का खौफ इतना था कि ‘गुंडे’ इतनी खौफनाक हरकत
करने से भी नहीं डरे ये…
संदीप
और जगेंद्र की शहादत बेकार नहीं जाएगी. ये उन लाखों युवाओं के लिए एक
प्रेरणा बनकर उभरेगी जो खुलकर अपनी बात लिख नहीं पाते थे. आज संदीप और
जागेंद्र को तो मार दिया. कल हज़ारो संदीप और जागेंद्र होंगे. कितनों की
आवाज दबा लोगे?
सोशल मीडिया
से आ रही सूचना प्रवाह और अभिव्यक्ति की आजादी बचाने की जिम्मेदारी,
कानून-व्यवस्था को दुरुस्त रखने का जिम्मा और राजनीतिक समीकरणों को
सुरक्षित बनाए रखने की मजबूरी के बीच भारतीय सत्ता तंत्र लोकतंत्र की कसौटी
पर बार-बार इम्तिहान के दौर से गुजर रहा है.