Monday, February 01, 2010

रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा ...

बढती महंगाई से एक आम इन्सान किस कदर व्यथित है यह किसी ने एक कविता के रूप में लिखकर बताने का प्रयास किया..यह उस व्यक्ति की लिखी हुयी है जिसे मै आप सब के साथ शेयर करना चाहती हूँ .. पेश है उसकी चंद पंक्तियाँ ..


कमरा तो एक ही है कैसे चले गुज़ारा,
बीबी गयी थी मायके लौटी नहीं दुबारा,
कहते है लोग मुझको शादीशुदा कुंवारा ,
रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा |




महंगाई बढ़ रही है मेरे सर पे चढ़ रही है
चीजो के भाव सुनकर तबियत बिगड़ रही है
कैसे खरीदू मेवे मै खुद हुआ छुहारा
रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा..

शुभचिंतको मुझे तुम नकली सूरा पिला दो
महंगाई मुसफिली से मुक्ति तुरत दिला दो
भूकम्प जी पधारो अपनी कला दिखाओ
भाड़े है जिनके ज़्यादा वो घर सभी गिराओ
एक झटका मारने में क्या जायेगा तुम्हारा
रहने को घर नहीं है....,

जिसने भी सत्य बोला उसको मिली न रोटी ,
कपडे उतर गये सब उसे लग गयी लंगोटी
वह ठण्ड से मरा है दिवार के सहारे
ऊपर लिखे हुए है दो वाक्य प्यारे-प्यारे ...

"सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा
हम बुलबुले है इसकी ये गुलसिता हमारा
रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा...सारा जहाँ हमारा..||"


2 comments:

rajan said...

wao........aap to kamal kr rhe ho ji

musictherapist said...

great writing.....