Tuesday, December 25, 2018

Zero Movie Review



स्टारकास्ट: शाहरुख खान, अनुष्का शर्मा, कैटरीना कैफ 
डायरेक्टर: आनंद एल. रॉय
रेटिंग: 2.5 स्टार


जब शाहरुख खान जैसा सुपरस्टार बौने के किरदार में नज़र आने के लिए तैयार हो जाए तो उस फिल्म में हर किसी की दिलचस्पी बढ़ जाती है. ऐसी ही फिल्म है 'ज़ीरो'. जिसकी रिलीज का बेसब्री से इंतजार था. कहानी भी बहुत दिलचस्प है. इस फिल्म का मुख्य किरदार बउवा सिंह मेरठ, दिल्ली और मुंबई से होते हुए अमेरिका तक पहुंच जाता है. चार फीट 6 इंच का बउवा सिंह ऐसा दिलफेंक आशिक है कि लोग प्यार में चांद लाने की बात करते हैं लेकिन वो खुद चांद पर पहुंच जाता है. बॉलीवुड फिल्मों से हटकर 'ज़ीरो' की कहानी के साथ एक्सपेरिमेंट किया गया है. इस फिल्म के एक गाने में सलमान खान भी हैं. श्रीदेवी, जूही चावला, आलिया भट्ट सहित दर्जन भर सितारे भी नज़र आए हैं. इतना सब कुछ होने के बाद क्या ये फिल्म देखने लायक बन पाई है? क्या शाहरुख की ये फिल्म उम्मीदों पर खरी उतर पाई है? सालों से  फिल्म के इंतजार में बैठे शाहरुख इससे धमाकेदार कमबैक कर पाएंगे? आइए जानते हैं -

कहानी
मेरठ के रहने वाले 38 साल के बउवा सिंह की हाइट कम है लेकिन कॉन्फिडेंस उसमें कूट-कूटकर भरा हुआ है. वो खुद को किसी से कम नहीं आंकता. शादी के लिए लड़की ढ़ूढ रहे बउवा सिंह की मुलाकात आफिया (अनुष्का शर्मा) से होती है जो नासा की साइंटिस्ट है. यहां बउवा सिंह इंप्रेस करने के लिए हर एक हुनर को आजमाता है. बात शादी तक पहुंच जाती है लेकिन बउवा सिंह तो बॉलीवुड स्टार बबिता सिंह (कैटरीना कैफ) का फैन है. बउवा शादी से भाग जाता है और मौका मिलते ही बबिता के घर तक एंट्री मार लेता है. लेकिन वहां बात नहीं बनती. फिर अपने प्यार को पाने और बचाने के लिए वो चांद तक पहुंच जाता है. बउवा सिंह के दोस्त गुड्डू हमेशा उसके साथ होता है और ये किरदार मोहम्मद ज़ीशान अयूब ने निभाया है. बउवा ये सब क्यों और कैसे होता है इसके लिए फिल्म देखिए.

 एक्टिंग
शाहरुख खान को तो आप सालों से रोमांस करते देखते आए हैं. इसमें भी वो बौने जरुर हो गए हैं लेकिन करते वो रोमांस ही हैं. ये सब उनके कैरेक्टर में जमता भी है. बउवा सिंह जबरदस्त डांस कर सकता है, डायलॉग्स उसकी ज़ुबान पर रटे रहते हैं जिसे वो लड़कियों को इंप्रेस करने के लिए इस्तेमाल करता है. स्क्रीन पर बउवा का किरदार शाहरुख जबरदस्त तरीके से निभाया है.


कैटरीना कैफ सुपरस्टार बबिता की भूमिका में जमी हैं. वो डांस अच्छा करती हैं और इस फिल्म में उन्होंने एक्टिंग भी अच्छी की है. उनका किरदार इसमें दिखाता है कि पर्दे पर अपनी मौजूदगी से दर्शकों को इंटरटेन करने वाले कलाकार असल ज़िंदगी में कितने खोखले होते हैं. और कई ऐसे हालतों से गुजर रहे होते हैं जिनके बारे में दूसरों को अंदाजा भी नहीं होता.

अनुष्का शर्मा ने इस फिल्म में जो भूमिका निभाई है उसे Cerebral palsy होता है. ये ऐसा डिसऑर्डर है जिसमें कोई भी इंसान ठीक से बोल नहीं पाता और चल भी नहीं पाता. ये भूमिका बहुत कठिन है लेकिन अनुष्का ने बेहतर ढंग से निभाई है.

इसके अलावा तिग्माशु धुलिया, ज़ीशान अयूब जैसे सभी सितारों ने अच्छी एक्टिंग की है.

डायरेक्शन
आनंद एल रॉय का नाम जुड़ते ही फिल्म से उम्मीद जुड़ जाती है. इस फिल्म के साथ भी ऐसा ही हुआ है. हिमांश कोहली की स्टोरी और आनंद एल रॉय का डायरेक्शन ये दोनों जब साथ मिलते हैं तो 'तनु वेड्स मनु' सीरिज और 'रांझणा' जैसी फिल्में बनती है. इन फिल्मों में कहानी के साथ-साथ कुछ नयापन होता है. लेकिन ये जोड़ी अपना कमाल नहीं दिखा पाई है. सारे एक्टर्स की बेहतरीन एक्टिंग के बावजूद कहानी ऐसी बुनी गई है कि वो बोझिल लगने लगती है.
फर्स्ट हाफ है शानदार
'तनु वेड्स मनु' सीरिज और 'रांझणा' जैसी अच्छी फिल्मों देने वाले हिमांश कोहली ने इसकी कहानी लिखी है. स्क्रीन प्ले भी उन्हीं का है. फिल्म का फर्स्ट पार्ट बहुत ही इंटरटेनिंग और जबरदस्त है. इसके डायलॉग्स अच्छे हैं, जिस तरीके से कहानी को प्रेजेंट किया गया है उसमें ह्यूमर है और देखने में मजा आता है. 

कहां हुई है चूक
फिल्म में सभी किरदारों ने बहुत ही अच्छी एक्टिंग की है लेकिन फिर भी फिल्म देखने लायक नहीं बन पाई है. इसकी वजह है इसकी कमजोर कहानी. इंटरवल से पहले फिल्म देखकर ऐसा लगता है कि शाहरुख खान इस फिल्म से शानदार वापसी कर रहे हैं. लेकिन सेकेंड हाफ में जैसे ही फिल्म मुंबई से होते हुए अमेरिका पहुंचती है उसके बाद तो फिल्म में इतना कुछ होता है कि इंटररेस्ट ही खत्म हो जाता है. कहानी बिखरती हुई चली जाती है.


बउवा सिंह का अमेरिका पहुंचना, नासा के ऑफिस में चल रहा सीरियल जैसा ड्रामा और फिर चांद तक जाना... इसके अलावा भी कई ऐसी चीजें दिखाई गई हैं जो बहुत ही ज्यादा नाटकीय लगता है.

शाहरुख खान की पिछली फिल्म 'हैरी मेट सेजल फ्लॉप' हो गई थी. इम्तियाज अली के डायरेक्शन के बावजूद ये फिल्म देखने लोग नहीं पहुंचे. उससे पहले 'रईस' में भी वो कुछ खास कमाल नहीं कर पाए. अच्छे डायरेक्टर्स और दमदार एक्टर्स होने के बावजूद आखिर शाहरुख की फिल्मों में कहां चूक हो रही है इस पर उन्हें सोचने की जरुरत है.

म्यूजिक 
इस फिल्म का म्यूजिक काफी अच्छा है. इसके गाने पहले ही बहुत पॉपुलर हो चुके हैं. अजय-अतुल ने इस फिल्म का साउंड ट्रैक कंपोज  किया है. 'मेरे नाम तु' सहित कुल चार गाने हैं जिसे इरशाद कामिल और कुमार ने लिखे हैं.


क्यों देखें
'डियर ज़िंदगी' से लेकर 'ज़ीरो' तक शाहरुख अपनी फिल्मों के जरिए लगातार एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं. एक सुपरस्टार के लिए रिस्क लेना बहुत ही चुनौतीपूर्ण है. आखिर शाहरुख खान बौने के किरदार में कैसे दिखे हैं? ये देखने के लिए आप सिनेमाहॉल का रुख कर सकते हैं. लेकिन अगर फिल्म से बहुत ज्यादा उम्मीदें लेकर जाएंगे तो आपको निराशा होगी.




Monday, October 22, 2018

HAPPY BIRTHDAY PRABHAS: सालों स्ट्रगल के बाद भारतीय सिनेमा के 'बाहुबली' बने प्रभास

HAPPY BIRTHDAY PRABHAS: भारतीय सिनेमा में उस वक्त खलबली मच गई जब टॉलीवुड के सुपरस्टार प्रभास की फिल्म 'बाहुबली' ने बड़े पर्दे पर दस्तक दी. इससे पहले कभी-कभार ही टॉलीवुड की रीजनल फिल्में डब होकर हिंदी में रिलीज होती थीं. 2015 में प्रभास 'बाहुबली' बनकर दर्शकों को ऐसी तिलस्मी दुनिया में ले गए जहां से कोई भी बाहर आने को तैयार नहीं था. आलम ये था कि सोशल मीडिया से लेकर आम बातचीत तक हर तरफ यही चर्चा थी कि आखिर कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? फिल्म का क्लाईमैक्स जानने के लिए दर्शकों ने दो साल का लंबा इंतजार किया.

2017 में जब 'बाहुबली: द कन्क्लूजन' रिलीज हुई तो बॉक्स ऑफिस पर ऐसा तूफान आया जिसमें बॉलीवुड के किंग से लेकर दबंग खान तक की फिल्मों की कमाई का हर रिकॉर्ड कागज़ के पन्नों की तरह उड़ गया. लोगों पर प्रभास का जादू ऐसा चला की देश और विदेशों के बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने धमाल मचा दिया. 'बाहुबली 2' भारत के इतिहास की ऐसी फिल्म बन गई, जिसने दुनियाभर के सिनेमाघरों में खलबली मचाते हुए 1700 करोड़ रुपए से भी ज़्यादा का कारोबार किया. इस तरह प्रभास ने हिंदुस्तानी सिनेमा पर अपनी ऐसी बादशाहत कायम की जिसे आने वाले कई सालों तक किसी और सितारे के लिए तोड़ पाना बेहद मुश्किल नज़र आता है.

आज प्रभास अपना 39वां बर्थडे सेलिब्रेट कर रहे हैं. इस मौके पर आपको बताते हैं कि प्रभास ने ये स्टारडम पाने के लिए कितनी मेहनत की. उनके लिए 'बाहुबली' बनने का रास्ता इतना आसान नहीं था.

बिजनेसमैन बनना चाहते थे प्रभास


प्रभास का जन्म 23 October 1979 को हुआ था. उनका पूरा नाम वेंकट सत्यनारायण प्रभास राजु उप्पालापाटि है. प्रभाष के पिता यू. सूर्यनारायण राजू उप्पालापाटि फिल्म प्रोड्यूसर थे और उनकी मां का नाम शिवकुमारी है. तीन भाईयों बहनों में प्रभास सबसे छोटे हैं. आपको जानकर हैरानी होगी कि प्रभास एक्टर नहीं बनना चाहते थे. प्रभास की पढ़ाई लिखाई हैदराबाद में हुई है. उन्होंने B.Tech की डिग्री ली है. शुरुआत में प्रभास बिजनेसमैन बनना चाहते थे. प्रभास के अंकल कृष्णम राजू तेलुगू इंडस्ट्री के जाने माने एक्टर हैं. उन्हीं के कहने पर प्रभास ने एक्टिंग में हाथ आजमाया.


प्रभास ने कई सालों तक किया स्ट्रगल


प्रभास ने साल 2002 में तेलुगू फिल्म 'ईश्वर' से अभिनय की शुरुआत की. इस फिल्म से बहुत उम्मीदें की गई थीं लेकिन ये फिल्म लोगों को कुछ खास पसंद नहीं आई. हालांकि ये फिल्म फ्लॉप नहीं थी, बल्कि इसे एवरेज हिट करार दिया गया. इसके बाद भी प्रभास की किस्मत रंग नहीं लाई और 2003 में रिलीज हुई उनकी दूसरी फिल्म 'राघवेंद्रम' भी बॉक्स ऑफिस पर कमाल नहीं दिखा पाई. उनकी किस्मत का कनेक्शन लोगों से तब जुड़ा जब 2004 में फिल्म 'वर्शम' रिलीज हुई. इसमें प्रभास के साथ तृषा कृष्णम और गोपीचंद भी नज़र आए थे. फिल्म ने अच्छी कमाई की. ये फिल्म वर्ल्डवाइड रिलीज हुई और इसने प्रभास को स्टारडम का स्वाद चखाया. शानदार अभिनय के लिए प्रभास ने Best Young Performer का संतोषम फिल्म अवॉर्ड जीता. उनकी को-स्टार तृषा ने भी फिल्मफेयर का बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड जीता.


हालांकि, अभी प्रभास का स्ट्रगल यही खत्म नहीं हुआ. इसी साल रिलीज हुई उनकी फिल्म अडवि रामुडु (Adavi Ramdu) लोगों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी. फिल्म को बहुत ही नकारात्मक रिव्यू मिला और फ्लॉप हो गई. प्रभास इससे आहत तो बहुत हुए लेकिन हार नहीं मानी. उन्हें सही समय का इंतजार था और फिर जाने माने डायरेक्ट एस. एस. राजामौली की नज़र प्रभास पर पड़ी.


'छत्रपति' फिल्म 100 दिनों तक सिनेमाघरों में चली

हीरे को तो जौहरी ही पहचानता है. शायद ये कहावत प्रभास पर फिट बैठती है. 2005 में राजमौली के निर्देशन में प्रभास की फिल्म 'छत्रपति' रिलीज हुई. ये फिल्म सुपरहिट हुई. एक शरणार्थी की भूमिका निभाकर प्रभास ने खूब तारीफें बटोरीं और ये फिल्म करीब 100 दिनों तक 54 थियेटरों में चलती रही. इसके बाद एक बार फिर 2006 में उस समय लोगों को निराशा हाथ लगी जब प्रभास की फिल्म 'पौर्णमी' रिलीज हुई. ये फिल्म फ्लॉप रही.


फैंस के लिए कभी 'डार्लिंग' तो कभी 'मिस्टर परफेक्ट' बने प्रभास


अब प्रभास तेलुगू इंडस्ट्री में अपना सिक्का जमा चुके थे. उनकी फिल्म योगी (2007), मुन्ना (2009), बिल्ला (2009) और एक निरंजन (2013) बॉक्स ऑफिस पर हिट रही. 2011 में रिलीज हुई फिल्म डार्लिंग में उन्हें पसंद किया गया. मिस्टर परफेक्ट (2011) में भी प्रभास की कॉमेडी को लोगों ने सराहा. इन्होंने अपनी कॉमेडी से लोगों को इतना हंसाया कि कभी इन्हें डार्लिंग कहा गया तो कभी फैंस ने इनका निक नेम ही 'मिस्टर परफेक्ट' रख दिया.


कॉमेडी के बाद प्रभास ने अपने एक्शन से लोगों का दिल जीता. मारधाड़ और जबरदस्त एक्शन से भरपूर फिल्म 'रेबेल' (Rebel, 2012) में प्रभास ने तमन्ना भाटिया के साथ रोमांस करते हुए माफियाओं का खात्मा किया. ये फिल्म हिट रही और फिर 2014 में हिंदी में रिलीज हुई. रिबेल के बाद प्रभास ने एक और सुपरहिट फिल्म 'मिर्ची' (2013) दी, जिसमें उनके साथ अनुष्का शेट्टी नज़र आईं.


ये बात शायद ही आपको पता हो कि 2014 में ही अजय देवगन की फिल्म 'एक्शन जैक्शन' से प्रभाष ने हिंदी सिनेमा में डेब्यू कर लिया. इस फिल्म में वो गेस्ट अपीयरेंस में थे. इस समय तक प्रभास रीजनल सिनेमा में तो अपने पैर जमा चुके थे लेकिन हिंदी भाषी लोगों के लिए अभी भी उनका नाम जाना पहचाना नहीं था.

बाहुबली बनकर हर तरफ छाए प्रभास 
2015 में सिनेमाघरों में बाहुबली (Baahubali: The Beginning)  रिलीज हुई. मुख्य रुप से तेलुगू में बनी इस फिल्म को तमिल, मलयालम और हिंदी में डब किया गया. इस फिल्म को हिंदी में करन जौहर के धर्मा प्रोडक्शन ने रिलीज किया. इसमें प्राचीन राज्य माहिष्मति राज्य की लार्जर दैन लाइफ की कहानी दिखाई गई जिसमें प्रभास ने अमरेंद्र बाहुबली (पिता) और महेंद्र बाहुबली (सिवुडु) दोनों का किरदार निभाया. ये महज फिल्म नहीं थी बल्कि परदे पर रची गई एक ऐसी तिलिस्मी दुनिया थी जिसने दर्शकों पर कभी ना उतरने वाला जादू कर दिया.


दो साल तक लोग पूछते रहे- कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?

इस फिल्म का एलान 2011 में ही राजामौली ने कर दिया. तीन सालों में इस फिल्म की शूटिंग हुई और इस दौरान प्रभास ने कोई दूसरी फिल्म साइन नहीं की. उन्हें क्या पता था कि इसके जरिए वो सिनेमा की दुनिया में ऐसा स्टैंडर्ड सेट कर रहे हैं जहां तक पहुंचना सुपरस्टार्स के लिए सपने जैसा हो जाएगा. करीब 180 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म ने 650 करोड़ की कमाई की.

ये फिल्म भारतीय सिनेमा के दर्शकों को पहली बार स्पेशल इफेक्ट्स के जरिए ऐसी दुनिया में ले गई जो पहले नहीं देखी गई थी. एक्शन और वॉर सीन्स ने दिल जीत लिया. फिल्म देखने जाने तक लोगों को ये पता नहीं था कि उन्हें क्लाइमैक्स के लिए सालों इंतजार करना पड़ेगा. इसे देखने के बाद हर किसी के मन में यही सवाल था कि आखिर कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? इस सवाल का जवाब लोगों को 2017 में मिला जब 'बाहुबली: द कन्क्लूजन' (Baahubali 2: The Conclusion) रिलीज़ हुई. 'बाहुबली 2' देखने के बाद लोगों का रिएक्शन बता रहा था कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी में पहले किसी भारतीय फिल्म  में ऐसा कुछ नहीं देखा था जो प्रभास स्टारर इस फिल्म में देखा है.


बाप-बेटे दोनों का किरदार करना था चैलेंज


चैलेंजिंग ये था कि इन दोनों फिल्मों में प्रभाष ने दो किरदार निभाए. दोनों का कॉस्टयूम एक जैसा रखा गया, हावभाव भी एक से थे लेकिन ये प्रभास की दमदार एक्टिंग थी जिससे दर्शक बाप और बेटे के किरदार में आसानी से अंतर कर पाए. पिता के किरदार में वो बहुत ही परिपक्व लगे तो वहीं बेटे के किरदार से लोगों का दिल जीता. 'बाहुबली: द कन्क्लूजन' में अनुष्का के साथ उनकी केमेस्ट्री भी खूब पसंद की गई. जहां बाहुबली में उन्होंने एक्शन किया तो वहीं दूसरे भाग में उनके रोमांटिक अवतार ने लोगों के दिलों में घर बना लिया. फिल्म के डायलॉग सुपरहिट हुए.

फिल्म के एक सीन में जब प्रभास कहते हैं, ''औरत पर हाथ उठाने वाले की उंगलियां नहीं काटते बल्कि काटते हैं उसका गला.'' ऐसे बहुत से डायलॉग इस फिल्म में प्रभास के हिस्से आए जिन पर खूब तालियां और सीटियां बजीं.


''देवसेना को हाथ लगाया तो समझो 'बाहुबली' की तलवार को हाथ लगाया...''


इस फिल्म ने इतनी ताबड़तोड़ कमाई की कि सिर्फ इसके हिंदी डब वर्जन ने 510.99 करोड़ कमा लिए. करीब 250 करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म ने वर्ल्डवाईड 1,796.59 करोड़ की कमाई की. प्रभास ने इस फिल्म के जरिए बॉक्स ऑफिस पर ऐसा जादुई आंकड़ा सेट कर दिया जिसे पार करने की सोचने पर ही दिग्गज एक्टरों के कदम ठिठक जाएंगे.

इस फिल्म के बाद प्रभास की गिनती सबसे मंहगे एक्टर्स में होने लगी है, बाहुबली सीरिज के लिए प्रभास ने करीब 24 करोड़ लिए.


इसके बाद एक बार फिर प्रभास 'साहो' के जरिए बड़े पर्दे पर दिखने वाले हैं. ये एक्शन फिल्म भी सबसे महंगी फिल्मों में से एक बताई जा रही है. प्रभास की इस फिल्म का फैंस को बेसब्री से इंतजार है. ये फिल्म खुद प्रभास के लिए भी चुनौतीपूर्ण है जिन्होंने भारतीय सिनेमा में खुद ही एक स्टैंडर्ड सेट कर दिया है.


फिलहाल, प्रभास को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं!

Friday, July 13, 2018

SOORMA Movie Review: इंस्पायरिंग कहानी होने के बावजूद बोझिल लगती है 'सूरमा', दोसांझ ने जीता दिल




स्टारकास्ट: दिलजीत दोसांझ, तापसी पन्नू, अंगद बेदी, विजय राज, कुलभूषण खरबंदा
डायरेक्टर: शाद अली
रेटिंग: 3/5(***)


Soorma Movie Review: 'प्लेयर तो प्लेयर है चाहें वो क्रिकेट का हो या फिर हॉकी का...' 'सूरमा' फिल्म की ये लाइन सुनने में तो अच्छी लगती है लेकिन हकीकत यही है कि जिस खिलाड़ी ने पैरालाइज्ड होने के बाद भी खुद को अपने पैरों पर खड़ा किया और देश के लिए कुछ भी कर गुजर गया उसका नाम आपने पहले कभी शायद ही सुना हो. उसी खिलाड़ी संदीप सिंह की बायोपिक है 'सूरमा'. इसे देखने के बाद आपको एहसास होगा कि उनकी ज़िंदगी कितनी प्रेरणादायक है. ये सिर्फ फिल्म नहीं है, ये एक उभरते सितारे के साथ हुए ऐसे हादसे की कहानी है जिससे उबर पाना हर किसी के बस की बात नहीं. एक हादसा जिसने वर्ल्डकप खेलने जा रहे एक चमकते खिलाड़ी को इतना लाचार बना दिया कि उसकी दुनिया हॉस्पिटल के बेड तक सिमट कर रह गई. चलना, टहलना तो दूर करवट बदलने में भी दूसरों के सहारे की दरकार थी. ये फिल्म आपको बहुत हिम्मत देगी और साथ ही ये भी साबित करेगी कि “अगर किसी चीज को दिल से चाहो, तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की साजिश में लग जाती हैं...” ऐसी चाहत संदीप सिंह ने हॉकी और देश के लिए रखी.

सूरमा फिल्म कहानी

हरियाणा के साहबाद में जन्मे संदीप सिंह भारतीय राष्ट्रीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान रह चुके हैं. उन्हें दुनिया के सबसे खतरनाक ड्रैग-फ्लिकर में से एक माना जाता है, जिनके ड्रैग की स्पीड 145 किलोमीटर प्रतिघंटा है और उनकी इस शानदार स्पीड के चलते उन्हें 'फ्लिकर सिंह' के नाम से जाना जाता है. वैसे तो उन्हें बचपन से हॉकी का कोई शौक नहीं था लेकिन प्यार को पाने के लिए उन्होंने इतनी मेहनत की कि उनका सेलेक्शन टीम इंडिया में हुआ. वर्ल्ड कप खेलने जाते समय उनके साथ एक हादसा होता है और वो पैरालाइज्ड हो जाते हैं. लेकिन वो ज़िंदगी से हार नहीं मानते और दोबारा दमदार वापसी करते हैं. ये कैसे मुमकिन हुआ. ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी. इसमें उनकी ज़िंदगी के दो पहलुओं को दिखाया गया है. एक समय जब वह व्हीलचेयर पर थे और दूसरा जब वो हॉकी खेलने के लिए ग्राउंड पर थे.

सूरमा फिल्म में एक्टिंग

संदीप सिंह का किरदार पंजाबी सिंगर और एक्टर दिलजीत दोसांझ ने निभाया है. दिलजीत की शानदार एक्टिंग के लिए ये फिल्म देखी जा सकती है. उन्होंने शुरू से आखिर तक अपने हर सीन में जान फूंकने की कोशिश की है. इस फिल्म के लिए की गई उनकी तैयारियां साफ नज़र आती हैं. इससे पहले 'उड़ता पंजाब' और 'फिल्लौरी' में भी उन्होंने साबित किया था कि रोल छोटा हो या बड़ा वो उसे जीवंत कर सकते हैं. इस फिल्म में उन्होंने खुद को साबित कर दिया है.


तापसी पन्नू की गिनती बेहतरीन एक्टिंग करने वाली अभिनेत्रियों में की जाती है लेकिन इस फिल्म में वो कुछ खास नहीं कर पाई हैं. तापसी ने इसमें हरप्रीत का किरदार निभाया है जो हॉकी प्लेयर है और पहली नज़र में ही संदीप सिंह को उनसे प्यार हो जाता है. फिल्म की शुरुआत में तो वो अपने कैरेक्टर में जमी हैं लेकिन बाद में जैसे ही इमोशनल सीन आते हैं वो उसमें जान नहीं भर पाती. तापसी कहीं-कहीं इतनी कमजोर हैं कि फिल्म हल्की लगने लगती है. तापसी के जो मैच फिल्म में दिखाए जाते हैं वो असली नहीं लगते.

इस फिल्म में अगर किसी ने अपनी तरफ ध्यान आकर्षित किया है तो वो हैं विजय राज. वो इस फिल्म में हॉकी कोच की भूमिका में हैं. इस फिल्म के जो शानदार और ह्यूमरस डायलॉग्स हैं वो भी उन्हीं के हिस्से हैं. एक सीन में वो कहते हैं, 'तमंचा कच्छे में रख लो, बिहार से हूं थूक कर माथे में छेद कर दूंगा.'

सूरमा फिल्म डायरेक्शन
इस फिल्म के डायरेक्टर शाद अली की 'झूम बराबर झूम', 'किल दिल' और 'ओके जानू' जैसी कई फिल्में बुरी तरह फ्लॉप हो चुकी हैं. इस फिल्म में भी शाद अली मात खा गए हैं. करीब दो घंटे 15 मिनट की ये फिल्म अगर बायोपिक ना हो और आप खिलाड़ी की ज़िंदगी से सहानुभूति ना रखें तो नहीं देख पाएंगे. फिल्म इंस्पायरिंग है लेकिन उसके साथ ही बहुत धीमी और बोझिल है. फिल्म की कहानी बहुत ही इमोशनल है लेकिन शाद अली अपने एक्टर्स से ढ़ंग की एक्टिंग भी नहीं करा पाए हैं. चाहे संदीप सिंह के भा्ई की भूमिका में अंगद बेदी हों या फिर उनके परिवार के अन्य सदस्य. इतना ही नहीं, फिल्म के कई सीन फेक लगते हैं. इससे पहले खिलाड़ियों पर 'मैरी कॉम', 'भाग मिल्खा भाग' और 'दंगल' जैसी बायोपिक बन चुकी हैं. इन्हें काफी पसंद भी किया गया है. लेकिन यहां शाद अली ने एक बहुत ही शानदार कहानी को बर्बाद कर दिया है.

जब भी हॉकी की बात आती है सबसे पहले दर्शकों को शाहरुख खान की 'चक दे इंडिया' याद आ जाती है. ये फिल्म क्रिटिकली और कमर्शियली दोनों ही मामलों में सुपरहिट हुई थी. कोच की भूमिका में शाहरुख खान की एक्टिंग हो, कहानी हो या फिर उस फिल्म के गाने... आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं. जब ये फिल्म बन रही थी उसी दौरान साल 2006 में संदीप सिंह के साथ हादसा हुआ था. 2007 में 'चक दे इंडिया' जब रिलीज  हुई उस समय संदीप सिंह ज़िदंगी की जंग लड़ रहे थे. 2009 में उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स में पाकिस्तान के खिलाफ अपनी दमदार वापसी की. उनकी वास्तविक कहानी ऐसी है जिसे अगर पर्दे पर ढंग से दिखाया जाए तो इसमें रोमांस, कॉमेडी, ड्रामा और रोमांच सब कुछ है. लेकिन इतनी दमदार कहानी हाथ लगने के बाद भी डायरेक्टर इससे इंसाफ नहीं कर पाएं हैं.


सूरमा फिल्म म्यूजिक


इसके लिए म्यूजिक दिया है शंकर एहसॉन लॉय ने और लिरिक्स गुलजार ने लिखे हैं. सूरमा एंथम सहित इसमे कुल पांच गाने हैं लेकिन एक भी गाना फिल्म में जान नहीं फूंक पाता. गानों को देशभक्ति का भाव जगाने के लिए भी रखा गया हैं लेकिन उसे देखकर रोमांच नहीं आता.


सूरमा फिल्म  क्यों देखें

आप ये फिल्म संदीप सिंह के लिए देख सकते हैं जिन्होंने ज़िंदगी से ऐसी लड़ाई की जिसके बारे में आपने ना अब तक देखा होगा ना ही सुना होगा. कमबैक के समय संदीप सिंह ने पाकिस्तान के साथ हॉकी का जो मैच खेला वो जानकर आप भी रोमांचित हो जाएंगे. 2010 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया. बॉलीवुड में इससे पहले भी खिलाड़ियों पर कई ऐसी फिल्में बनी हैं जिन्हें लोग पहले तो नहीं जानते थे लेकिन फिल्म बनने के बाद उन्हें कभी भूल नहीं पाए. संदीप सिंह की कहानी भी ऐसी ही है, उनके बारे में आपको जरुर जानना चाहिए.




Saturday, June 30, 2018

Sanju Movie Review: संजय दत्त की 'बैड ब्वॉय' इमेज सुधारने की कोशिश में चमक गए रणबीर कपूर


स्टारकास्ट: रणबीर कपूर, परेश रावल, मनीषा कोईराला, करिश्मा तन्ना, जिम सर्भ, विक्की कौशल, सोनम कपूर, अनुष्का शर्मा

डायरेक्टर: राजुकमार हिरानी

रेटिंग: **** (4 स्टार)

Sanju Movie Review and Ratings: बॉलीवुड में अब बायोपिक के मायने बदल रहे हैं. अब अगर किसी शख्सियत पर फिल्म बनाने की घोषणा हो तो इसका कतई मतलब ये नहीं होगा कि आप उनके बारे में कुछ अलग देख पाएंगे, बल्कि पब्लिक डोमेन में जो जानकारियां हैं उसी में मिर्च मसाला लगाकर परोसा जाएगा. संजय दत्त की बायोपिक 'संजू' इसका ताजा उदाहरण है. इस फिल्म का बेसब्री से इंतजार इसलिए भी था क्योंकि संजय दत्त की पूरी लाइफ ट्विस्ट एंड टर्न्स से भरी हुई है. बचपन से लेकर अब तक की उनकी ज़िंदगी पर नज़र डालेंगे तो शायद वो किसी फिल्म से भी ज्यादा दिलचस्प लगेगी. लेकिन जिस तरह से डायरेक्टर राजकुमार हिरानी ने ये फिल्म बनाई है उसे देखकर तो ऐसा साफ लग रहा है कि ये संजय दत्त की छवि सुधारने से ज्यादा कुछ भी नहीं. ट्रेलर में संजय दत्त ने कहा था कि वो बेवड़े हैं, ठरकी हैं, ड्रग एडिक्ट हैं, पर टेररिस्ट नहीं हैं. इसी बात को फिल्म में पूरी शिद्दत के साथ साबित करने की कोशिश की गई है. हालांकि, अगर इसे नज़रअंदाज करें तो  फिल्म में संजय दत्त की पूरी कहानी को बहुत ही इंटरटेनिंग तरीके से दिखाया गया है. डायलॉग्स अच्छे हैं, कहानी पर पकड़ मजबूत है और बेहतरीन अदाकारी की बदौलत इस फिल्म में आखिर तक दिलचस्पी बनी रहती है. रणबीर कपूर ने संजय दत्त की भूमिका निभाई है और अपने किरदार में ऐसे डूबे हैं कि आपका दिल जीत लेते हैं.

आखिर संजय दत्त कैसे ड्रग्स के चक्कर में फंस गए. वो छोड़ना चाहते थे लेकिन क्यों उससे निकलना नामुकिन लगा. जैसा कि फिल्म में एक डायलॉग भी है- 'हर ड्रग एडिक्ट कोई ना कोई बहाना ढ़ूढता है नशे के लिए...' संजय दत्त को भी ज़िंदगी ने कई वजहें दीं. सुनील दत्त और नरगिस दत्त जैसे पैरेंट्स हों तो बच्चों के लिए उस लेगेसी को आगे बढ़ाना कितना मुश्किल होता है ये भी बताने की कोशिश की गई है.

ड्रग्स, अफेयर से ज्यादा इसमें बाप-बेटे की कहानी दिखाई गई. कैसे पिता सुनील दत्त मुसीबत की हर घड़ी में संजय दत्त के साथ खड़े रहे. ड्रग्स की लत से कैसे निकाला. करियर पर संजय दत्त ध्यान दे सकें इसके लिए हर तरह का हथकंड़ा अपनाया. उन पर अंडरवर्ल्ड से संबंध रखने के आरोप लगते रहे हैं, उस पल उन्होंने संजय दत्त को कैसे सही रास्ता दिखाया. इस बात का एहसास आप एक दृश्य से कर सकते हैं जिसमें दिखाया गया है कि जब संजय दत्त जेल में थे तो तपती गर्मी में सुनील दत्त जमीन पर सोते थे. उन्हें लगता था कि बेटा भी तो वैसे ही सो रहा होगा. सुनील दत्त को टेररिस्ट का बाप बुलाया गया. उतनी मुश्किल घड़ी में भी उन्होंने संजय दत्त को बेल दिलाने के लिए उन्होंने कई बड़े राजनेताओं के चक्कर लगाए.


मुंबई अटैक के बाद संजय दत्त हथियार रखने के इल्जाम में टाडा के तहत गिरफ्तार हुए. बाद में टाडा से बरी कर आर्म्स एक्ट के तरह 6 सला की सजा सुनाई गई. फिल्म में ये दिखाया गया है कि जो हथियार उनके घर से मिले थे वो उनके पास कैसे पहुंचे. इस मामले में इमोशनल दलीलें भी रखी गई हैं जैसे 'अगर मैं ब्लास्ट में इन्वॉल्व होता तो इंडिया वापस आता क्या?' संजय दत्त ने घर में हथियार क्यों रखे इसके पक्ष में बहुत ही हल्की और हास्यास्पद दलील पेश की गई है. संजय दत्त के पिता को जान से मारने की धमकी से लेकर बहनों को रेप की धमकी तक... सब कुछ बहुत ही मार्मिक तरीके से पेश किया गया है. इसे फिल्माते वक्त इतनी चालाकी दिखाई गई है कि दर्शक के तौर पर शायद आप संजय दत्त के गुनाह को भूल जाएं या माफ कर दें.

एक्टिंग
इस फिल्म की जान रणबीर कपूर हैं जो हर सीन में जमे हैं. फिल्म में कई कमियां होने के बावजूद रणबीर कपूर की वजह से ये फिल्म मस्ट वॉच और शानदार है. फिल्म शुरु होने के बाद एक पल ऐसा आता है कि लगता नहीं कि आप संजय दत्त नहीं बल्कि रणबीर कूपर को देख रहे हैं. 'बेशरम', 'रॉय', 'बॉम्बे वेलवेट’, 'तमाशा' और 'जग्गा जासूस' जैसी कई फ्लॉप फिल्में देने के बाद रणबीर के पास खुद को साबित करने के लिए इससे बेहतरीन फिल्म नहीं हो सकती थी. इसे देखने के बाद कोई शक नहीं कि 'रॉकस्टार' और 'बर्फी' के बाद 'संजू' ऐसी फिल्म है जो संजय दत्त के साथ-साथ रणबीर कपूर की किस्मत बदलने वाली है. ड्रग एडिक्ट का सीन हो या फिर ब्रेकअप इफेक्ट या फिर मां नरगिस की मौत के बाद लगा सदमा, हर सीन में रणबीर कपूर ने जान फूंक दी है. फिल्म में ह्यूमर भी है जिससे बोर होने का ज्यादा कुछ स्कोप नहीं दिखता.

रणबीर के अलावा सुनील दत्त की भूमिका में परेश रावल परफेक्ट लगे हैं. रणबीर और परेश रावल की जोड़ी बिल्कुल रीयल लगती है. शायद परेश रावल से बेहतर ये भूमिका कोई भी नहीं कर सकता. 

नरगिस के किरदार में मनीषा कोईराला हैं. उनको फिल्म में जितनी जगह मिली है वो बेहतरीन लगी हैं. उनके अलावा मान्यता की भूमिका में दीया मिर्जा को एकाथ ही डायलॉग्स मिले हैं. अनुष्का शर्मा उस लेखिका की भूमिका में हैं जिसे संजय अपनी बायोपिक लिखने के लिए अप्रोच करते हैं. सोनम कपूर का छोटा सा रोल है, जो फिल्म देखने के बाद तक याद भी नहीं रहता. खास दोस्त की भूमिका में जिम सर्भ और विक्की कौशल इंप्रेस करते हैं.

डायरेक्शन

संजय दत्त जैसे सेलिब्रिटी पर फिल्म बनाना आसान नहीं हैं. ऐसी फिल्मों के साथ कहांनियों में उलझ कर रह जाने का डर हमेशा रहता है. लेकिन यहां 'संजू' की कहानी पेश करने में राजकुमार हिरानी का नज़रिया बहुत साफ दिखता है. उन्होंने सिर्फ वही कहानी दिखाई है जो पहले से ही लोग देख चुके हैं. बस उसमें उन्होंने इमोशन का कॉकटेल मिला दिया है ताकि चटपटा बन सके और लोग उसे चटखारे लेकर देख सकें. इसमें उन्होंने कहानी को जिस तरीके से पेश किया है वो भी दिलचस्प है. हालांकि ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.

फिल्म की कहानी अभिजात जोशी के साथ खुद हिरानी ने ही लिखी है. उन्हें पता है कि कैंसर से मां की मौत, बहनों को रेप की धमकी और बेटे के जेल में रहने पर तपती गर्मी में बाप का जमीन पर सोने जैसे दृश्य दिखाकर लोगों की सहानुभूति कैसे बटोरनी है. ये कहना गलत नहीं होगा कि ये फिल्म संजय दत्त की छवि बदलने के लिए बनाई गई है. खासकर संजय दत्त की खराब छवि के लिए पूरी तरह मीडिया को जिम्मेदार ठहराया है. देखकर लगता है कि फिल्म बनाई है या फिर मीडिया पर भड़ास निकाली है?


हैरानी की बात ये है कि राजकुमार हिरानी ने बताया था कि इस फिल्म के लिए उन्होंने संजय दत्त से करीब 200 घंटे तक बातचीत की. अभिजात जोशी ने बताया था कि फिल्म की स्क्रिप्ट का नेरैशन 725 पन्नों में लिखा गया. अब सवाल है कि क्या संजय दत्त ने अपनी कहानी में कुछ भी नहीं बताया? ये कई सारे सवाल हैं जो फिल्म देखने के बाद दिमाग में आते हैं.

म्यूजिक
'मैं बढ़िया, तु बढ़िया', 'रुबी-रुबी' और 'कर हर मैदान फतह' जैसे फिल्म में कुल तीन गाने हैं लेकिन एक भी ऐसा नहीं है जो आपको आखिरी तक याद रह सके. हां फिल्म के आखिर में संजय दत्त और रणबीर कपूर के साथ में 'बाबा बोलता है' सॉन्ग आपको जरूर पसंद आएगा.

क्यों देखें
कहानी हो या फिर एक्टिंग 'संजू' हर मामले में इस साल की बेहतरीन फिल्मों में से एक है. इसे रणबीर कपूर के लिए देखा जा सकता है. संजय दत्त के फैन हैं तो जरुर देखेंगे. राजुकमार हिरानी ने ये साबित कर दिया है कि कहानी कैसी भी हो अगर उसे कहने का सलीका पता है तो आप दर्शकों का दिल जीत सकते हैं. ये फिल्म ड्रग्स, अल्कोहल या फिर अफेयर के बारे में नहीं बल्कि बाप-बेटे की कहानी है जिसे आप इस वीकेंड फैमिली के साथ देख सकते है.


Saturday, June 16, 2018

'Race 3' Movie Review: बिना स्पीड ही 'रेस' लगाने उतरे सलमान खान, ना सस्पेंस है, ना ट्विस्ट और टर्न


स्टारकास्ट: सलमान खान, अनिल कपूर, डेजी शाह, जैकलीन फर्नांडिस, बॉबी देओल, फ्रेडी दारुवाला, साकिब सलीम


डायरेक्टर: रेमो डिसूजा


रेटिंग: 1.5/5*


2008 में जब 'रेस' रिलीज हुई तो उसे देखने के बाद लोगों में इस सीरिज की फिल्मों की कहानी और सस्पेंस को लेकर एक क्रेज शुरू हुआ जिसे सलमान खान ने 'रेस 3' में पूरी तरह खत्म कर दिया है. पिछली दोनों फिल्मों को अब्बास मस्तान ने डायरेक्ट किया था लेकिन इस सीरिज के लिए प्रोड्यूसर रमेश तौरानी (टिप्स इंटरटेनमेंट) ने रेमो डिसूजा को चुना ताकि सलमान के हिसाब से फिल्म की कहानी में बदलाव किया जा सके. अब डायरेक्टर रेमो डिसूजा और सलमान दोनों ने मिलकर इस फिल्म सीरीज को पूरी तरह बर्बाद कर दिया है. सीरीज की शुरुआत से ही इससे जुड़ी हर फिल्म में एक लाइन है- 'लेट्स द रेस बिगिन'. लेकिन हकीकत यही है कि 'रेस' शुरू होने से पहले ही सलमान खान इससे बाहर हो जाते हैं. 'रेस 3' में ना तो कोई कहानी है, ना ट्विस्ट और ना ही कोई टर्न. इस फिल्म को तो सलमान खान का स्टारडम भी नहीं बचा पाएगा. पिछले साल सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' बुरी तरह फ्लॉप रही थी और ऐसा लगता है कि ये उससे भी बड़ा फ्लाप बनाने के लिए किया गया प्रयोग है. संभव है कि ये फिल्म 'ट्यूबलाइट' को टक्कर देने के लिए बनाई गई हो. हो सकता है कि लोग इसे 'रेस' सीरिज की वजह से देख लें लेकिन ये फिल्म सलमान की सबसे खराब फिल्मों में से एक है. हो भी क्यों ना? जब एक्टर्स एक्टिंग छोड़ कहानी, स्क्रिप्ट, लिरिक्स लिखने लगेंगे तो और क्या उम्मीद की जा सकती है!


कहानी


आर्म्स डिलर शमशेर सिंह (अनिल कपूर) एक साजिश का शिकार होने के बाद आईसलैंड शिफ्ट हो जाता है. वहां पर वो हथियारों का अवैध कारोबार करता है. इसमें उसका साथ बड़ा बेटा सिंकदर (सलमान खान) देता है. ये देखकर उसके दूसरे बेटे सूरज (साकिब सलीम) और बेटी संजना (डेजी शाह) को जलन होती है. सिकंदर के बॉडीगार्ड यश की भूमिका में बॉबी देओल हैं. इनकी मां ने मौत से पहले एक वसीयत लिखी होती है जिसमें सिकंदर को 50% और सूरज-संजना को 25-25% प्रॉपर्टी का हिस्सा देती है. ये देखने के बाद सिकंदर से जायदाद लेने के लिए सूरज और संजना एक जाल बुनते हैं. क्या वो अपनी चाल में कामयाब हो पाते हैं? जैकलीन फर्नांडिस कभी सिकंदर तो कभी यश की गर्लफ्रेंड की भूमिका में हैं. विलेन (राणा) की भूमिका में फ्रेडी दारुवाला को लिया गया है.


कहानी का एक हिस्सा ये भी है कि शमशेर सिंह को जब अपने बच्चों के बीच नफरत के बारे में पता चलता है तो क्या होता है? सिकंदर अपना परिवार बचाना चाहता है. क्या वो ऐसा कर पाता है? इसी बीच एक हार्ड डिस्क, जिसमें बहुत सारे लोगों की काली करतूतें छिपी हैं, फिल्म की कहानी को कहीं से कहीं ले जाती है. इसी बीच एक्शन और मारधाड़ भी चलता रहता है और फिर दर्शक भी सोचने लगता है कि ये हो क्या रहा है?


एक्टिंग


ये मल्टी स्टारर फिल्म है. ऐसी फिल्मों को या तो एक्टिंग से बचाया जा सकता है या फिर कहानी से. लेकिन यहां तो कुछ भी नहीं है. अनिल कपूर थोड़े ठीक लगे हैं. उन्हें हम 'रेस' और 'रेस 2' में देख चुके हैं. अपने हाव भाव और एक्टिंग से उन्होंने अपना हिस्सा तो ठीक ही किया है लेकिन बाकी एक्टर्स? डेजी शाह अपने दुश्मनों से लड़ने के लिए ड्रेस और हाई हिल्स में जाती हैं. उनके डायलॉग का पहले ही मजाक उड़ाया जा चुका है. फिल्म में तो उनके डायलॉग इतने खराब हैं कि आपको हंसी आएगी.



बॉबी देओल के पास बॉडी दिखाने के अलावा इसमें ज्यादा कुछ करने को मिला नहीं है. बस एक जगह वो सलमान खान के साथ फाइट करते दिखे हैं और जमे भी हैं. इस सीन में सलमान के साथ बॉबी शर्टलेस भी हुए हैं. लेकिन इसे देखने के बाद ये कह पाना मुश्किल है कि क्या वाकई ऐसी फिल्म से वो कमबैक कर पाएंगे?


जैकलीन फर्नांडिस तो इस फिल्म में बस ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए हैं. अंग्रेजी के डायलॉग हों या हिंदी के उनके चेहरे पर भाव एक जैसे ही रहते हैं. उनसे एक्टिंग की क्या उम्मीद कर सकते हैं.


फ्रेजी दारुवाला जैसे एक्टर को इस फिल्म में ऐसा स्पेस ही नहीं दिया गया है कि वो कुछ कर सके. वो बस स्क्रीन पर आते हैं और चले जाते हैं. 2014 में अक्षय कुमार की 'हॉलीडे' में फ्रेडी दारुवाला विलने के रोल में थे और इसके लिए उनकी खूब वाहवाही भी हुई थी. लेकिन यहां पर लगा ही नहीं कि वो कुछ कर रहे हैं. फिल्म में इतने सारे एक्टर्स की भरमार है इस लेकिन कोई भी दमदार एक्टिंग नहीं कर पाया है.


डायरेक्शन


कोरियोग्राफर रेमो डिसूजा ने इसे डायरेक्ट किया है. फिल्म को उन्होंने सलमान खान के हिसाब से बनाया है. यही वजह है कि ये फिल्म देखने लायक भी नहीं बन पाई है. रेमो डिसूजा ने दावा किया था कि इसमें ऐसा एक्शन देखने को मिलेगा कि लोग सैफ को भूल जाएंगे. लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो पाया है. स्क्रिप्ट बहुत ढीली है. कहानी चल रही है और वो कहां से कहां चली जाती है ये समझना मुश्किल है. सलमान से तो क्या वो फ्रेडी दारुवाला और बॉबी देओल से भी एक्टिंग नहीं करा पाए हैं.


फिल्म में देसी टच देने के लिए 'गांव की याद आवत है', 'जावत है' जैसी हिंदी का इस्तेमाल किया गया है जो बहुत ही फनी लगता है और खराब भी. ये लाइन्स बहुत ज्यादा इरिटेट भी करती हैं. रेमो जाने माने कोरियोग्राफर हैं. उनकी पिछली फिल्म 'फ्लाइंग जट' फ्लॉप हुई थी. इस सीरिज को अगर वो संभाल लेते तो डायरेक्शन में खुद को साबित करने के लिए उनके पास ये एक बेहतरीन मौका था.


इस फिल्म को बनाने में 150 करोड़ लगे हैं. इसमें महंगी-महंगी गाड़ियों का इस्तेमाल एक्शन सीन्स को पर्दे पर और भी धमाकेदार बनाने के लिए किया गया है. लेकिन सिर्फ गाड़ियों को उड़ाने से अच्छी फिल्में नहीं बनतीं. अगर रेमो थोड़ा सा काम इसकी कहानी पर कर लेते तो ये सीरिज खराब होने से बच जाती.


सिनेमैटोग्राफी और एक्शन सीन्स की कोरियोग्राफी है शानदार


इस फिल्म में अगर कुछ देखने लायक है तो वो है इसकी सिनेमैटोग्राफी. इसकी शूटिंग बैंकॉक, थाइलैंड और अबु धाबी में की गई है. एक्शन सीन के दौरान कुछ स्लो मोशन शॉट्स दिखाए गए हैं जो लाजवाब हैं. 'इंसेप्शन', 'द डार्क नाइट', और 'डंकिर्क' जैसी बड़ी हॉलीवुड फिल्मों में एक्शन की कोरियोग्राफी करने वाले Tom Struthers ने इस फिल्म के कुछ दृश्यों को कोरियोग्राफ किया है. लेकिन एक्शन सीन्स ऐसी जगह फिल्म में डाले गए हैं कि वो शानदार होते हुए भी पूरी फिल्मों को खराब होने से नहीं बचा पाते.


म्यूजिक


'रेस 3' में कुल सात गाने हैं. मीका सिंह और यूलिया वंतूर की आवाज में 'पार्टी चले ऑन' (Party Chale On) है जिसे पसंद किया गया है. इसके अलावा 'सेल्फिश' (Selfish), 'अल्लाह दुहाई है' (Allah Duhai Hai), और 'हीरिए' (Heeriye) गाना भी लोगों को पसंद आ रहा है. लेकिन 'रेस' के 'ज़रा-ज़रा' (Zara Zara Touch Me) और 'रेस 2' के 'लत लग गई' (Lat Lag Gayee) जैसे गानों की टक्कर में इसमें कुछ भी नहीं है. इसका 'अल्लाह दुहाई है' गाना अच्छा है लेकिन उसे तो आप यू-ट्यूब पर भी देख सकते हैं.


क्यों देखें/ना देखें


अगर आप सलमान खान के फैन हैं तो भी आपने उनसे ऐसी फिल्म को उम्मीद तो बिल्कुल भी नहीं की होगी. लेकिन अगर आप 'रेस' सीरिज के फैन हैं तो इसे देखकर आप टॉर्चर होने जैसा महसूस करेंगे. आप हर सीन में 'रेस के पुराने खिलाड़ी' सैफ अली खान को मिस करेंगे. इस फिल्म में जैकलीन एक सीन में कहती हैं, 'इतने झटके, आखिर ये कब खत्म होगा.' फिल्म देखते समय आपको भी यही लगता है कि आखिर ये कब खत्म होगा.


आखिर में सलमान ने ये भी बता दिया है कि 'रेस' अभी बाकी है  और इसकी अगड़ी कड़ी जल्द आने वाली है.

Wednesday, May 02, 2018

Satyajit Ray’s 97th birth anniversary: आपने सत्यजीत रे की फिल्म नहीं देखी तो बिना सूरज या चांद के ये दुनिया देख रहे हैं!


सत्यजीत रे की 97वीं बर्थ एनिवर्सरी'अगर आपने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी तो आप दुनिया में बिना सूरज और चाँद के देखे रह रहे हैं...' ये बात जापान के जाने माने फिल्ममेकर अकीरा कुरोसावा ने कही थी. सत्यजीत रे ऐसे फिल्मकार थे जिन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय सिनेमा का परचम लहराया. उनकी पहली फिल्म 'पाथेर पांचाली' को भारत ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खूब सराहना मिली और कई बड़े अवॉर्ड भी मिले. सत्यजीत रे भारतीय सिनेमा के एकमात्र ऐसे नाम हैं जिन्हें वो सारे अवॉर्ड और सम्मान मिले, जिसे पाना, किसी सपने के सच होने जैसा है. 'पद्मश्री', 'पद्म विभूषण' से लेकर दादासाहेब फाल्के और ऑस्कर अवार्ड तक,  हर तरह के पुरस्कार उन्हें मिले. इसके अलावा कुल 32 नेशनल अवॉर्ड उनके नाम हैं. 1992 में उन्हें भारत के सबसे प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया.


आज हर फिल्ममेकर और एक्टर हॉलीवुड सिनेमा की तरफ अपना कदम बढ़ाना चाहता है लेकिन सत्यजीत रे का नाम उनमें से है जिसने हॉलीवुड ही नहीं दुनिया के बड़े फिल्मेमेकर्स उनसे प्रेरणा लेते हैं. हाल ही में हॉलीवुड के मशहूर डायरेक्टर क्रिस्टोफर नोलन भारत आए थे. इस दौरान उनसे जब भारतीय सिनेमा के बारे में बात की गई तो उन्होंने सत्यजीत रे का नाम लिया. उनका कहना था कि उन्होंने 'पाथेर पांचाली' देखी है और उसे देखने के बाद उनकी दिलचस्पी भारतीय सिनेमा में बढ़ गई. ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी ने भारत में आकर 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' बनाई. सिनेमा के बारे में बातचीत करते हुए उन्होंने बताया, ''मैंने भारत के प्रसिद्ध निर्देशक सत्यजीत रे के जरिए भारतीय सिनेमा को जाना और मेरा सपना था कि मैं भारत में फिल्म बनाऊं.''


आज सत्यजीत रे की 97वीं बर्थ एनिवर्सरी है. इस मौके पर आपको बताते हैं उनके बारे में कुछ ऐसी बातें जो आप सिनेमा प्रेमी हों या नहीं लेकिन आपको जरूर जाननी चाहिए-


सत्यजीत रे का जन्म 2 मई 1921 को कोलकाता के बंगाली परिवार में हुआ था. बचपन में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया. वो सिर्फ दो साल के थे जब 1923 में उनके पिता सुकुमार राय का निधन हो गया. उनकी मां सुप्रभा राय ने उनका पालन-पोषण अकेले ही किया. उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से इकॉनोमिक्स की पढ़ाई की लेकिन बचपन से उनकी दिलचस्पी हमेशा फाइन आर्टस में रही. इसके बाद रे शांति निकेतन गए और वहां पांच साल रहे.


बतौर डिजाइनर शुरु किया करियर


1943 में कोलकाता वापस आकर सत्यजीर रे ने बतौर ग्राफिक्स डिजाइनर अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहर लाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ जैसे कई पॉपुलर किताबों के कवर डिजाइन किए. यहां पर उन्हें डिजाइन करने में क्रिएटिविटी दिखाने की पूरी छूट थी. उस वक्त किसे पता था कि ये डिजाइनर एक दिन दुनिया में बतौर फिल्मकार भारत का परचम लहराने वाला है. इसी दौरान उन्होंने बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास 'पाथेर पांचाली' के बाल संस्करण पर भी काम किया. इसका नाम था आम आटिर भेंपू (आम की गुठली की सीटी). इससे सत्यजीत रे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म इसी पर बनाई.


तीन महीने में देखी 99 फिल्में और फिर लिया मूवी बनाने का फैसला


इसके बाद 1949 में उनकी मुलाकात फ्रांसीसी निर्देशक जां रेनोआ से हुई. ये डायरेक्टर उन दिनों कोलकाता में अपनी फिल्म 'द रिवर' की शूटिंग की लोकेशन तलाश रहे थे. सत्यजीत ने रे उनकी ये तलाश पूरी की. यही वो दौरा था जब सत्यजीत रे के दिमाग में फिल्म बनाने का आइडिया आया.  रेनोआ से उन्होंने पाथेर पांचाली पर फिल्म बनाने को लेकर भी बातचीत की. उनकी एजेंसी ने उन्हें कुछ काम से लंदन भेजा. आपको जानकर हैरानी होगी कि सत्यजीत रे ने तीन महीनों में लंदन में कुल 99 फिल्में देखीं. फ़िल्म Ladri di biciclette (बाइसकिल थीव्स) को देखकर वो काफी प्रभावित हुए. एक बार उन्होंने बताया था कि सिनेमाघर से बाहर निकलते ही उन्होंने फिल्म बनाने की ठान ली थी.


पैसों की किल्लत झेली लेकिन नहीं किया स्टोरी में बदलाव 




लंदन से वापसी के दौरान रास्ते में ही सत्यजीर रे ने फिल्म कैसी बनेगी इसकी प्लानिंग कर ली. उन्होंने इस फिल्म में करीब सभी नए लोगों को लिया. उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे थे उससे ही उन्होंने इस पर काम शुरू किया. हालात ऐसे भी थे कि पैसों के अभाव में फिल्म कई बार रूकी. ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने इस फिल्म को बनाने के लिए अपनी लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी बेच दी थी. इतना ही नहीं पत्नी के गहने बेचकर भी उन्होंने इस फिल्म में पैसे लगाए. फिर भी काम पूरा नहीं हुआ. उन्होंने ऐसे लोगों से पैसा लेने से इंकार कर दिया था जो इस फिल्म में अपने हिसाब से बदलाव चाहते थे. 1952 में इस फिल्म पर काम शुरू हुआ और 1955 में बंगाल सरकार ने उन्हें पैसे दिए उसके बाद काम पूरा हुआ.


हिट हुई पहली फिल्म 'पाथेर पांचाली' 


1955 में ही पाथेर पांचाली रिलीज हुई और इसे लोगों ने काफी पसंद किया. इस फिल्म को समीक्षकों से भी काफी तारीफें मिली. 'पाथेर पांचाली' ने कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते. ये पुरस्कार उन्हें 1956 के कान्स फिल्म फेस्टिवल में दिए गए थे.


जब इस फिल्म की Cannes में स्क्रीनिंग हो रही थी तो फ्रांसिसि फिल्ममेकर Francois Truffaut वहां से उठकर चल गए. उनका कहना था कि “गंवारों को हाथ से खाना खाते हुए दिखाने वाली फ़िल्म मुझे नहीं देखनी...'' इसके बाद जब वो 1970 में मुंबई आए तो उन्होंने इस पर सफाई दी. उन्होंने कहा कि ''इन खबरों के उलट जैसे ही ये फिल्म खत्म हुई मैं पाथेर पांचाली को दोबारा देखना चाहता था.''




इसके बाद उन्होंने फिल्म 'अपराजितो' (1956) और 'अपूर संसार' (1959) बनाई. इन फिल्मों को भी कई पुरस्कार मिले.


सत्यजीर रे ने अपने करियर में पाथेर पांचाली,  'अपराजितो' (1956) और 'अपूर संसार' (1959), 'देवी', 'महापुरुष', 'चारुलता', 'तीन कन्या', 'अभियान', 'कापुरुष' (कायर) और 'जलसाघर' जैसी करीब  37 फिल्मों को डायरेक्ट किया. इसमें फीचर फिल्मों के अलावा, डॉक्यूमेंट्री और शॉर्ट फिल्में भी शामिल हैं. साल 1991 में रिलीज हुई आगंतुक उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई.


स्क्रिप्ट से लेकर कैमरा और एडिटिंग तक, सब खुद करते थे सत्यजीत रे


सत्यजित रे सिर्फ फिल्मकार ही नहीं थे. उन्हें लिखने का भी शौक था. उनका मानना था कि अगर फिल्म को डायरेक्ट करना है तो कहानी लिखनी आनी चाहिए. उन्होंने बहुत-सी शॉर्ट स्टोरी और उपन्यास तथा बच्चों पर आधारित किताबें भी लिखी हैं. 'फेलुदा', 'द सल्यूथ' और 'प्रोफेसर शोंकू' उनकी कहानियों के कुछ प्रसिद्ध किरदार हैं. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने उन्हें मानद डिग्री देकर सम्मानित किया था.


सत्यजित रे अपनी फिल्मों की स्क्रिप्ट खुद लिखते थे. आज के दौरा में फिल्म बनाने के लिए एक बड़ी टीम की जरुरत पड़ती है लेकिन सत्यजीत रे अपनी फिल्मों का कैमरा वर्क, एडिंटिंग, कास्टिंग, स्कोरिंग और डिजाइनिंग भी वो खुद ही करते थे.


हॉस्पिटल में मिला ऑस्कर अवॉर्ड, बेड से दी थी Live स्पीच




ऑस्कर जीतना हर फिल्मकार का सपना होता है लेकिन सत्यजीत रे इसके पीछे कभी नहीं भागे. उन्होंने अपनी फिल्मों की एंट्री कभी ऑस्कर के लिए नहीं भेजी. लेकिन उनके काम को देखते हुए 1992 में उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. उन्हें ये अवॉर्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड की कैटेगरी में दिया गया था. इस साल सत्यजीत रे काफी बीमार थे और अस्पताल में एडमिट थे. उन्हें ये अवॉर्ड वहीं पर दिया गया था. उन्होंने इस अवॉर्ड को लेने के बाद हॉस्पिटल से ही लाइव स्पीच भी दी थी.


भारत रत्न से हुए सम्मानित


सत्यजीत रे को 1958 में 'पद्मश्री, 1965 में 'पद्मभूषण' और 1976 में 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया. 1967 में उन्हें रेमन मैग्सेसे पुरस्कार मिला. उन्होंने कुल 32 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी अपने नाम किए. 1992 में ही सत्यजीत रे को भारत रत्न से नवाजा गया. इसी साल उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड मिला. इसे संयोग ही कहा जाएगा कि ऑस्कर अवॉर्ड मिलने के 24 दिन बाद ही सत्यजीत रे का निधन हो गया. उन्होंने इस अवॉर्ड को अपने करियर का सबसे बेस्ट अचीवमेंट बताया.


23 अप्रैल को ली अंतिम सास


71 साल की उम्र में सत्यजीत रे ने 23 अप्रैल, 1992 को अंतिम सांस ली और संसार को हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह गए. उन्होंने कहा था, ''किसी फिल्मकार के लिए उसकी पहली फिल्म एक अबूझ पहेली की तरह होती है. बनने या न बनने के दरम्यान अमूर्त आशंकाओं से घिरी हुई. फिल्म पूरी होती है तो फिल्मकार जन्म लेता है.'' पहली फिल्म बनाते समय उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि वो सिनेमाई दुनिया को इस तरह प्रभावित करेंगे और ऐसा काम कर जाएंगे कि दुनिया उनसे प्रेरणा लेगी और उनके कदमों पर चलेगी.

Monday, April 30, 2018

Dadasaheb Phalke's 148th Birthday | पत्नी ने गहने बेचकर दिए थे फिल्म के लिए पैसे, तीन आने में बिके थे टिकट

भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने देश को उस वक्त पहली फिल्म दी जब ना तो कोई फिल्मों में काम करना चाहता था, ना ही किसी को कैमरा, स्क्रिप्ट, डायलॉग और बाकी प्रोजक्शन के कामों की जानकारी थी. वो ऐसा दौर था जब उनकी पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के लिए कोई हीरोइन नहीं मिली तो एक रसोइए ने हीरोइन की भूमिका निभाई. भारत को ये पहली फिल्म 1913 में देखने को मिली जिसमें आवाज नहीं थी. ये फिल्म 'मूक' थी. इसी फिल्म को बनाने वाले आज दादा साहेब फाल्के की 148वीं बर्थ एनिवर्सरी है. इस मौके पर आपको बताते हैं कि  दादा साहेब के बारे में कुछ ऐसी बातें जो आपको जरूर जाननी चाहिए-


फोटोग्राफी से की थी करियर की शुरूआत

दादा साहेब फाल्के का असली नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था. उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक शहर में हुआ था. उन्हें बचपन से ही आर्ट में दिलचस्पी थी. 15 साल की उम्र में उन्होंने मुंबई के जे.जे.कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला लिया. इसके बाद उन्होंने महाराज शिवाजी राव विश्वविद्यालय के आर्ट भवन में एडमिशन कराया और चित्रकला के साथ साथ फोटोग्राफी की पढ़ाई की. उन्होंने फोटोग्राफर के तौर पर अपनी पहली नौकरी गोधरा में शुरू. कुछ समय बाद ही प्लेग से अचानक उनकी पत्नी और बच्चे की मौत हो गई जिसे वो बर्दाश्त ना कर सके और नौकरी छोड़ दी

बाद में दादा साहेब ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में मानचित्रकार के पद पर भी काम किया. इसे छोड़ने के बाद उन्होंने 40 साल की उम्र में प्रिंटिंग का काम शुरू किया. उन्होंने पेंटर राजा रवि वर्मा के लिए भी काम किया. इसके बाद उन्होंने अपना प्रिंटिंग प्रेस खोल लिया. इसी समय उन्होंने पहली बार विदेश का यात्रा भी किया. लेटेस्ट टेक्नॉलोजी और मशीनरी को समझने के लिए वो जर्मनी पहुंचे. इसके बाद पार्टनर से प्रिंटिंग को लेकर चल रहे विवाद की वजह से उन्होंने इस काम को छोड़ दिया.

ईशा मसीह पर बनी मूवी को देखकर आया फिल्म मेकिंग का आइडिया 

उनको फिल्म बनाने का आइडिया साइलेंट फिल्म  The Life of Christ देखने के बाद आया. इसे देखकर उन्हें लगा कि अगर महाभारत और रामायण को लेकर वो पर्दे पर  कहानी दिखाएं तो इसे लोग पसंद करेंगे. 1910 में दादा साहेब ने पहली शॉर्ट फिल्म 'Growth of a Pea Plant' बनाई.  इसके लिए उन्होंने मटर बोया और फिर उसके बढ़ने की प्रक्रिया के हर फ्रेंम को अपने कैमरे में कैद दिया. 45 दिनों तक शूट करने के बाद उन्होंने 2 मिनट की ये शॉर्ट फिल्म बनाई.

लीड एक्टर की तलाश में लिखा-Ugly faces need not apply

इस फिल्म में अच्छे दिखने वाले कलाकारों की जरूरत थी जिसके लिए कई एड दिए गए. इसके बाद उनके यहां हर तरह के लोग पहुंचे. परेशान होकर उन्होंने फिर से एक एड दिया जिसमें लिखा- “Ugly faces need not apply”

पत्नी ने ज्वैलरी बेचकर दिए फिल्म बनाने के लिए पैसे

इसके बाद दादा साहेब फाल्के फिल्म मेकिंग का काम सीखने इंग्लैंड गए. आने के बाद उन्होंने 'राजा हरिश्चंद्र' बनाना शुरू किया. इस फिल्म को बनाने में करीब 15 हजार रुपये खर्च हुए. ये सारे पैसे उनकी दूसरी पत्नी सरस्वती बाई ने अपनी ज्वैलरी बेचकर दी. अगर उनकी पत्नी साथ ना देंती तो शायद वो पहली फिल्म ना बना पाते. इंग्लैंड से आने के बाद जब उन्होंने दोस्तों से फिल्म बनाने का आइडिया शेयर किया तो किसी ने उनका साथ नहीं दिया. कुछ दोस्तों ने तो उन्हें मेंटल असाइलम भेजने की बात भी कही. लेकिन सरस्वती बाई ने उनका सपोर्ट किया.

रूपाली भावे ने अपनी किताब Lights Camera Action में लिखा है कि सरस्वती बाई ने कॉस्ट्यूम तैयार करने से लेकर सभी क्रू मेंबर्स के लिए खाना बनाने तक का हर काम खुद किया. दादा साहेब के इस आइडिया पर काम करने के लिए उन्होंने खुद उत्साहित किया. उन्होंने सिर्फ एक काम नहीं किया. दादा साहेब उन्हें इस फिल्म में लीड एक्ट्रेस के रूप काम करवाना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया. रूपाली भावे ने लिखा है कि सरस्वती बाई ने कहा, ''मैं पहले से ही इतना सारे काम संभाल रही हूं. अगर में अभिनय करूंगी तो क्या मैं ये सारे काम कर पाऊंगी? मैं फिल्म में काम नहीं करूंगी.'' इसके बाद जब मुख्य भूमिका के लिए कोई नहीं मिला तो रेस्टोरेंट में रसोइए का काम करने वाले सालुंके ने रानी तारामती की भूमिका निभाई.


तीन आने में दिखाई फिल्म

फिल्म बनने के बाद लोगों को थियेटर तक लाने की समस्या भी बहुत बड़ी थी. उस समय दो आने में लोग 6 घंटे नाटक देखते थे तो फिर फिल्म देखने कौन आता. इसके लिए नए तरीके से प्रचार-प्रसार किया गया. इसके प्रचार में लिखा गया- 'सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म में 57 हजार चित्र...' कुछ खास लोगों और पत्रकारों को लिए 21 मई को इस फिल्म का प्रीमियर रखा गया. बाद में 3 मई, 1913 को मुंबई के कोरोनेशन थियेटर में ये फिल्म रिलीज की गई. ये फिल्म हिट हुई. इसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों में इसे दिखाने के लिए कई प्रिंट तैयार किए गए.

इस फिल्म की कहानी दादा साहेब की थी और डायरेक्टर प्रोड्यूसर भी वही थी. ये फिल्म कुल 40 मिनट की थी. Wikipedia के मुताबिक इस फिल्म ने कुल 47000 रूपये की कमाई की थी.
ये हैं मुख्य फिल्में

'राजा हरीशचंद्र' के बाद 'मोहिनी भस्मासुर' (1913), 'सत्यवान सावित्री' (1914), 'लंका दहन' (1917), 'श्री कृष्णा जन्म' (1918), 'कालिया मर्दन' (1919) जैसी फिल्म दादा साहेब ने बनाईं. 1932 में रिलीज हुई फिल्म 'सेतुबंधन' दादा साहेब फाल्के की आखिरी मूक फिल्म थी. उन्होंने 1937 में फिल्म 'गंगावतरण' से कमबैक की कोशिश की लेकिन ये फिल्म नहीं चली. ये उनकी आखिरी बोलने वाली (सवाक) फिल्म थी. इन फिल्मों की विदेशों में भी काफी तारीफ हुई. 16 फरवरी 1944 को नासिक में उनकी मृत्यु हो गई.

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार

दादा साहेब फाल्के के नाम पर सिनेमा में अतुलनीय योगदान के लिए भारत सरकार की ओर से अवॉर्ड दिया जाता है. इस अवॉर्ड की शुरूआत दादा साहेब फाल्के के जन्म शताब्दी वर्ष 1969 से हुआ. 'लाइफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड' के रूप में दिया जाने वाला ये 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है. 1969 में ये पहला पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया था.

इसके बाद 1971 में दादा साहेब फाल्के के नाम पर पोस्टेज स्टैंप जारी किया गया.

Saturday, April 28, 2018

MOVIE REVIEW: सब कुछ फिक्स हो सकता है, इश्क नहीं, पढ़ें 'दास देव' का रिव्यू


स्टार कास्ट: राहुल भट्ट, ऋचा चड्ढा, अदिती राव हैदरी, सौरभ शुक्ला, विपिन शर्मा, विनीत कुमार
डायरेक्टर: सुधीर मिश्रा
रेटिंग: तीन स्टार (***)


जब भी 'देवदास' नाम की दस्तक होती है, अतीत के पन्नों पर सभी पिछली फिल्मों की यादें ताज़ा हो जाती है, चंद सेकेंड के लिए सीन्स, एक्शन और सारी कहानियां एक साथ खयालों की दुनिया से टकरा जाती हैं. यही वजह है कि सुधीर मिश्रा ने जब इस फिल्म का ऐलान किया तो कुछ अलग, नया और ताज़ा की उम्मीदें बंध गई. लेकिन सुधीर के सामने चुनौतियां बहुत थीं. संजय लीला भंसाली ने शाहरूख खान को देवदास बनाया. देव का नाम आते ही उनका चेहरा सामने आ जाता है. उसके बाद अनुराग कश्यप पहले ही फिल्म 'देव डी' में उसका मॉडर्न वर्जन दिखा चुके हैं. एकता कपूर भी वेब सीरिज 'देव डीडी' ला चुकी हैं जिसमें उन्होंने देवदास का लेडी वर्जन दिखाया है. इन उलझनों के बीच फिल्म देखी और आखिर में ये सारी दुविधाएं दूर हो गईं, क्योंकि सुधीर मिश्रा उम्मीद के मुताबिक अपनी 'दास देव' में नई और तरोताज़ा कहानी लेकर आए हैं, फिल्म कब किस ओर मुड़ेगी, कहां किधर को जाएगी. क्लाइमेक्स कहां पर चढ़ेगी और कहां पे जाकर खत्म होगी. आगे क्या होने वाला इसका गुमान नहीं कर पाएंगे. शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास से उन्होंने किरदार जरूर लिए हैं लेकिन उन्हें कहानी आधुनिक युग के पॉलिटिकल बैकग्राउंड में रची है. इसमें राजनीतिक विरासत बचाने की दौड़ के बीच प्यार-धोखा, खून-खराबा और शराब सब कुछ दिखाया है. इस कहानी में देव है लेकिन वो दास नहीं बनता. पारो भी बोल्ड है वो प्यार की वजह से कमजोर नहीं पड़ती. इस फिल्म की चंद्रमुखी सब कुछ फिक्स करती है लेकिन अपना इश्क फिक्स नहीं कर पाती. फिल्म का नैरेशन चांदनी ने ही किया है वो कहती है, 'इस दुनियां में हर चीज़ फिक्स हो सकती है, धंधे, रिश्ते और सियासत सिवाय इश्क के...' इस फिल्म के जरिए डायरेक्टर सुधीर मिश्रा ने इन दिनों देश में हो रही राजनीति पर जो कटाक्ष किया है वो सीधे दिल में जाकर लगती है.


कहानी


इस फिल्म की कहानी यूपी की पॉलिटिकल पृष्ठभूमि में रची गई है. जहां देव (राहुल भट्ट) को पापा की अचानक मौत के बाद विरासत संभालना है. पारो (रिचा चड्ढा) से उसे इतना प्यार है कि वो कहता है, 'मेरी हर बात पर शक करना पर इस बात पर नहीं कि मुझे तुमसे प्यार है.' देव और उसकी मां की देखभाल चाचा अवधेश (सौरभ शुक्ला) ने की है और इस कदर की है कि खुद उसकी बीवी और बच्चे भी इससे खफा रहते हैं. शराब के नशे में धुत्त और पारो के प्यार में पागल देव कर्ज में डूबा हुआ है. उसे ना तो अपना फ्यूचर का पता है और ना ही प्रेंजेट से कोई फर्क पड़ता है.


देव को संभालने के लिए या यूं कहें तो उसकी लाइफ को फिक्स करने के लिए चांदनी (अदिती राव हैदरी) यानि चंद्रमुखी की एंट्री होती है. चांदनी को वैसे तो राजनीति के नामी गिरामी लोग जानते हैं पर पहचानते नहीं. क्या चांदनी देव का पॉलिटिकल करियर फिक्स कर पाती है? देव को रास्ते पर लाने के लिए चांदनी जो जाल बुनती क्या पारो भी उसका निशाना बन जाती है? देव की ज़िंदगी फिक्स करने के चक्कर में कई ऐसी चीजें सामने आती हैं जिन्हें जानकर देव की रूंह कांप जाती है. देव को जो चीजें दिखती हैं वो राजनीतिक गलियारों के लिए तो आम बात है लेकिन उसके लिए नहीं.


एक्टिंग


देव की भूमिका में यहां राहुल भट्ट हैं जो इससे पहले 'फितूर', 'अगली' और 'जय गंगाजल' जैसी कई फिल्मों में नज़र आ चुके हैं. उनकी अच्छी बात ये है कि देव के किरदर के लिए उन्होंने किसी और एक्टर की नकल नहीं की है. उनकी एक्टिंग ओरिजिनल लगती है. अपने हर सीन में वो परफेक्ट लगे हैं. जब वो शराब पीते हैं तो शराबी लगते हैं और प्यार के सीन में रोमांटिक हीरो. ऋचा चड्ढा, सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के बीच वो उभर कर सामने आए हैं.


वहीं ऋचा चड़्ढा भी पारो के किरदार में जमी हैं. वो बोल्ड हैं और उनके हिस्से जितना है उन्होंने अच्छा किया है. लेकिन इमोशनल सीन्स में वो इंप्रेस नहीं कर पाई हैं.



अदिती राव हैदरी ने चांदनी के किरदार के हिसाब से ग्लैमरस हैं, खूबसूरत हैं पर एक्टिंग के मामले में बाकी किरदारों की अपेक्षा कमजोर लगी हैं.  सौरभ शुक्ला एक राजनेता के किरदार में जमे हैं. 'मुक्काबाज' में दिख चुके विनीत कुमार यहां दिखे हैं और जितना स्पेश उनको मिला है उतने में अच्छा किया है.


डायरेक्शन


इससे पहले 'हज़ारों ख्वाहिशे ऐसी' और 'ये साली ज़िंदगी' जैसी फिल्में बनाने वाले सुधीर मिश्रा की इस फिल्म में भी उनका अपना टज दिखता है. उन्होंने मोहब्बत की तलाश में निकले और राजनीतिक विरासत के चक्रव्यूह में फंसे तीनों किरदारों के लिए कहानी का ऐसा जाल बुना है कि दर्शक आखिर तक कुछ कयास नहीं लगा सकता कि क्या होने वाला है. यही इस फिल्म की खासियत है. जिसे देवदास को लेकर अब तक तीन फिल्में बन चुकी हैं  और दर्शकों ने उन्हें काफी पसंद भी किया है. ऐसी फिल्मों के साथ हमेंशा ये डर होता है कि कहीं उसमें दोहराव ना हो. देवदास के किरदार को लेकर हमारे मन में जो पहले से एक इमेज बनी हुई है इसमें वो खत्म हो जाती है.



प्यार को तो उन्होंने दिखाया ही है साथ ही राजनीति में कितना कचड़ा भरा पड़ा है ये भी दिखाया है. राजनीति में जो घुस गया है वो मां-बाप, भाई के हत्यारों से भी मिलकर सत्ता चला सकता है. वो सामने वाले को हराने लिए किसी का चीरहरण करने से भी बाज नहीं आएगा. आजकल छवि बनाने के लिए गरीबों के घर जाना, लोगों से मिला और दलितों के घर खाना ये सब फिक्स होता है. चुकि ये उनकी कहानी का ही हिस्सा है तो फिल्म में आता है और चला जाता है लेकिन उस सीन के साथ ही आज के नेताओं की छवि तुरंत ही सामने आ जाती है. अच्छी बात ये है कि उन्होंने फिल्म में बहुत कुछ दिखाने को कोशिश की है लेकिन उसमें उलझे नहीं है. आखिर में फिल्म अपने लीड किरदारों और ज़िंदगी पर आकर ही खत्म होती है. उन्होंने इसमें पारो, देव और चांदनी तीनों  को दास बनने से बचा लिया है.


कमियां


फिल्म में कमियों की बात करें तो इसकी शुरूआत ही बहुत धीमी है. किरदारों की भूमिका बांधने में ही बहुत ज्यादा वक्त लग जाता है. अदिती राव हैदरी का नैरेशन अटपटा लगता है क्योंकि उनकी आवाज ऐसी डार्क फिल्म की कहानी के हिसाब से दमदार नहीं है. उनकी मधुर आवाज इस फिल्म को कमजोर बना देती है. गनीमत ये है कि नैरेशन कुछ समय के लिए ही है.


म्यूजिक


इसके गाने इस फिल्म को एक अलग लेवल पर ले जाते हैं. 'सहमी है धड़कन' गाना सुकून देने वाला है. आर्को और नवराज हंस की आवाज में 'रंगदारी' गाना इस फिल्म को और मजबूती देता है. स्वानंद किरकिरे की आवाज़ में 'आज़ाद' कर गाना अंदर तक झकझोरता है.



क्यों देखें


आप इस फिल्म को इसलिए देख सकते हैं क्योंकि इस देव का ऐसा वर्जन अब तक कोई और नहीं दिखा पाया है. करीब दो घंटे बीस मिनट की ये फिल्म कहीं भी आपको बोर नहीं करेगी.