Monday, April 30, 2018

Dadasaheb Phalke's 148th Birthday | पत्नी ने गहने बेचकर दिए थे फिल्म के लिए पैसे, तीन आने में बिके थे टिकट

भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने देश को उस वक्त पहली फिल्म दी जब ना तो कोई फिल्मों में काम करना चाहता था, ना ही किसी को कैमरा, स्क्रिप्ट, डायलॉग और बाकी प्रोजक्शन के कामों की जानकारी थी. वो ऐसा दौर था जब उनकी पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' के लिए कोई हीरोइन नहीं मिली तो एक रसोइए ने हीरोइन की भूमिका निभाई. भारत को ये पहली फिल्म 1913 में देखने को मिली जिसमें आवाज नहीं थी. ये फिल्म 'मूक' थी. इसी फिल्म को बनाने वाले आज दादा साहेब फाल्के की 148वीं बर्थ एनिवर्सरी है. इस मौके पर आपको बताते हैं कि  दादा साहेब के बारे में कुछ ऐसी बातें जो आपको जरूर जाननी चाहिए-


फोटोग्राफी से की थी करियर की शुरूआत

दादा साहेब फाल्के का असली नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था. उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक शहर में हुआ था. उन्हें बचपन से ही आर्ट में दिलचस्पी थी. 15 साल की उम्र में उन्होंने मुंबई के जे.जे.कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला लिया. इसके बाद उन्होंने महाराज शिवाजी राव विश्वविद्यालय के आर्ट भवन में एडमिशन कराया और चित्रकला के साथ साथ फोटोग्राफी की पढ़ाई की. उन्होंने फोटोग्राफर के तौर पर अपनी पहली नौकरी गोधरा में शुरू. कुछ समय बाद ही प्लेग से अचानक उनकी पत्नी और बच्चे की मौत हो गई जिसे वो बर्दाश्त ना कर सके और नौकरी छोड़ दी

बाद में दादा साहेब ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में मानचित्रकार के पद पर भी काम किया. इसे छोड़ने के बाद उन्होंने 40 साल की उम्र में प्रिंटिंग का काम शुरू किया. उन्होंने पेंटर राजा रवि वर्मा के लिए भी काम किया. इसके बाद उन्होंने अपना प्रिंटिंग प्रेस खोल लिया. इसी समय उन्होंने पहली बार विदेश का यात्रा भी किया. लेटेस्ट टेक्नॉलोजी और मशीनरी को समझने के लिए वो जर्मनी पहुंचे. इसके बाद पार्टनर से प्रिंटिंग को लेकर चल रहे विवाद की वजह से उन्होंने इस काम को छोड़ दिया.

ईशा मसीह पर बनी मूवी को देखकर आया फिल्म मेकिंग का आइडिया 

उनको फिल्म बनाने का आइडिया साइलेंट फिल्म  The Life of Christ देखने के बाद आया. इसे देखकर उन्हें लगा कि अगर महाभारत और रामायण को लेकर वो पर्दे पर  कहानी दिखाएं तो इसे लोग पसंद करेंगे. 1910 में दादा साहेब ने पहली शॉर्ट फिल्म 'Growth of a Pea Plant' बनाई.  इसके लिए उन्होंने मटर बोया और फिर उसके बढ़ने की प्रक्रिया के हर फ्रेंम को अपने कैमरे में कैद दिया. 45 दिनों तक शूट करने के बाद उन्होंने 2 मिनट की ये शॉर्ट फिल्म बनाई.

लीड एक्टर की तलाश में लिखा-Ugly faces need not apply

इस फिल्म में अच्छे दिखने वाले कलाकारों की जरूरत थी जिसके लिए कई एड दिए गए. इसके बाद उनके यहां हर तरह के लोग पहुंचे. परेशान होकर उन्होंने फिर से एक एड दिया जिसमें लिखा- “Ugly faces need not apply”

पत्नी ने ज्वैलरी बेचकर दिए फिल्म बनाने के लिए पैसे

इसके बाद दादा साहेब फाल्के फिल्म मेकिंग का काम सीखने इंग्लैंड गए. आने के बाद उन्होंने 'राजा हरिश्चंद्र' बनाना शुरू किया. इस फिल्म को बनाने में करीब 15 हजार रुपये खर्च हुए. ये सारे पैसे उनकी दूसरी पत्नी सरस्वती बाई ने अपनी ज्वैलरी बेचकर दी. अगर उनकी पत्नी साथ ना देंती तो शायद वो पहली फिल्म ना बना पाते. इंग्लैंड से आने के बाद जब उन्होंने दोस्तों से फिल्म बनाने का आइडिया शेयर किया तो किसी ने उनका साथ नहीं दिया. कुछ दोस्तों ने तो उन्हें मेंटल असाइलम भेजने की बात भी कही. लेकिन सरस्वती बाई ने उनका सपोर्ट किया.

रूपाली भावे ने अपनी किताब Lights Camera Action में लिखा है कि सरस्वती बाई ने कॉस्ट्यूम तैयार करने से लेकर सभी क्रू मेंबर्स के लिए खाना बनाने तक का हर काम खुद किया. दादा साहेब के इस आइडिया पर काम करने के लिए उन्होंने खुद उत्साहित किया. उन्होंने सिर्फ एक काम नहीं किया. दादा साहेब उन्हें इस फिल्म में लीड एक्ट्रेस के रूप काम करवाना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया. रूपाली भावे ने लिखा है कि सरस्वती बाई ने कहा, ''मैं पहले से ही इतना सारे काम संभाल रही हूं. अगर में अभिनय करूंगी तो क्या मैं ये सारे काम कर पाऊंगी? मैं फिल्म में काम नहीं करूंगी.'' इसके बाद जब मुख्य भूमिका के लिए कोई नहीं मिला तो रेस्टोरेंट में रसोइए का काम करने वाले सालुंके ने रानी तारामती की भूमिका निभाई.


तीन आने में दिखाई फिल्म

फिल्म बनने के बाद लोगों को थियेटर तक लाने की समस्या भी बहुत बड़ी थी. उस समय दो आने में लोग 6 घंटे नाटक देखते थे तो फिर फिल्म देखने कौन आता. इसके लिए नए तरीके से प्रचार-प्रसार किया गया. इसके प्रचार में लिखा गया- 'सिर्फ तीन आने में देखिए दो मील लंबी फिल्म में 57 हजार चित्र...' कुछ खास लोगों और पत्रकारों को लिए 21 मई को इस फिल्म का प्रीमियर रखा गया. बाद में 3 मई, 1913 को मुंबई के कोरोनेशन थियेटर में ये फिल्म रिलीज की गई. ये फिल्म हिट हुई. इसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों में इसे दिखाने के लिए कई प्रिंट तैयार किए गए.

इस फिल्म की कहानी दादा साहेब की थी और डायरेक्टर प्रोड्यूसर भी वही थी. ये फिल्म कुल 40 मिनट की थी. Wikipedia के मुताबिक इस फिल्म ने कुल 47000 रूपये की कमाई की थी.
ये हैं मुख्य फिल्में

'राजा हरीशचंद्र' के बाद 'मोहिनी भस्मासुर' (1913), 'सत्यवान सावित्री' (1914), 'लंका दहन' (1917), 'श्री कृष्णा जन्म' (1918), 'कालिया मर्दन' (1919) जैसी फिल्म दादा साहेब ने बनाईं. 1932 में रिलीज हुई फिल्म 'सेतुबंधन' दादा साहेब फाल्के की आखिरी मूक फिल्म थी. उन्होंने 1937 में फिल्म 'गंगावतरण' से कमबैक की कोशिश की लेकिन ये फिल्म नहीं चली. ये उनकी आखिरी बोलने वाली (सवाक) फिल्म थी. इन फिल्मों की विदेशों में भी काफी तारीफ हुई. 16 फरवरी 1944 को नासिक में उनकी मृत्यु हो गई.

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार

दादा साहेब फाल्के के नाम पर सिनेमा में अतुलनीय योगदान के लिए भारत सरकार की ओर से अवॉर्ड दिया जाता है. इस अवॉर्ड की शुरूआत दादा साहेब फाल्के के जन्म शताब्दी वर्ष 1969 से हुआ. 'लाइफ टाईम अचीवमेंट अवार्ड' के रूप में दिया जाने वाला ये 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' भारतीय फिल्म इंडस्ट्री का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है. 1969 में ये पहला पुरस्कार अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया था.

इसके बाद 1971 में दादा साहेब फाल्के के नाम पर पोस्टेज स्टैंप जारी किया गया.

Saturday, April 28, 2018

MOVIE REVIEW: सब कुछ फिक्स हो सकता है, इश्क नहीं, पढ़ें 'दास देव' का रिव्यू


स्टार कास्ट: राहुल भट्ट, ऋचा चड्ढा, अदिती राव हैदरी, सौरभ शुक्ला, विपिन शर्मा, विनीत कुमार
डायरेक्टर: सुधीर मिश्रा
रेटिंग: तीन स्टार (***)


जब भी 'देवदास' नाम की दस्तक होती है, अतीत के पन्नों पर सभी पिछली फिल्मों की यादें ताज़ा हो जाती है, चंद सेकेंड के लिए सीन्स, एक्शन और सारी कहानियां एक साथ खयालों की दुनिया से टकरा जाती हैं. यही वजह है कि सुधीर मिश्रा ने जब इस फिल्म का ऐलान किया तो कुछ अलग, नया और ताज़ा की उम्मीदें बंध गई. लेकिन सुधीर के सामने चुनौतियां बहुत थीं. संजय लीला भंसाली ने शाहरूख खान को देवदास बनाया. देव का नाम आते ही उनका चेहरा सामने आ जाता है. उसके बाद अनुराग कश्यप पहले ही फिल्म 'देव डी' में उसका मॉडर्न वर्जन दिखा चुके हैं. एकता कपूर भी वेब सीरिज 'देव डीडी' ला चुकी हैं जिसमें उन्होंने देवदास का लेडी वर्जन दिखाया है. इन उलझनों के बीच फिल्म देखी और आखिर में ये सारी दुविधाएं दूर हो गईं, क्योंकि सुधीर मिश्रा उम्मीद के मुताबिक अपनी 'दास देव' में नई और तरोताज़ा कहानी लेकर आए हैं, फिल्म कब किस ओर मुड़ेगी, कहां किधर को जाएगी. क्लाइमेक्स कहां पर चढ़ेगी और कहां पे जाकर खत्म होगी. आगे क्या होने वाला इसका गुमान नहीं कर पाएंगे. शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास से उन्होंने किरदार जरूर लिए हैं लेकिन उन्हें कहानी आधुनिक युग के पॉलिटिकल बैकग्राउंड में रची है. इसमें राजनीतिक विरासत बचाने की दौड़ के बीच प्यार-धोखा, खून-खराबा और शराब सब कुछ दिखाया है. इस कहानी में देव है लेकिन वो दास नहीं बनता. पारो भी बोल्ड है वो प्यार की वजह से कमजोर नहीं पड़ती. इस फिल्म की चंद्रमुखी सब कुछ फिक्स करती है लेकिन अपना इश्क फिक्स नहीं कर पाती. फिल्म का नैरेशन चांदनी ने ही किया है वो कहती है, 'इस दुनियां में हर चीज़ फिक्स हो सकती है, धंधे, रिश्ते और सियासत सिवाय इश्क के...' इस फिल्म के जरिए डायरेक्टर सुधीर मिश्रा ने इन दिनों देश में हो रही राजनीति पर जो कटाक्ष किया है वो सीधे दिल में जाकर लगती है.


कहानी


इस फिल्म की कहानी यूपी की पॉलिटिकल पृष्ठभूमि में रची गई है. जहां देव (राहुल भट्ट) को पापा की अचानक मौत के बाद विरासत संभालना है. पारो (रिचा चड्ढा) से उसे इतना प्यार है कि वो कहता है, 'मेरी हर बात पर शक करना पर इस बात पर नहीं कि मुझे तुमसे प्यार है.' देव और उसकी मां की देखभाल चाचा अवधेश (सौरभ शुक्ला) ने की है और इस कदर की है कि खुद उसकी बीवी और बच्चे भी इससे खफा रहते हैं. शराब के नशे में धुत्त और पारो के प्यार में पागल देव कर्ज में डूबा हुआ है. उसे ना तो अपना फ्यूचर का पता है और ना ही प्रेंजेट से कोई फर्क पड़ता है.


देव को संभालने के लिए या यूं कहें तो उसकी लाइफ को फिक्स करने के लिए चांदनी (अदिती राव हैदरी) यानि चंद्रमुखी की एंट्री होती है. चांदनी को वैसे तो राजनीति के नामी गिरामी लोग जानते हैं पर पहचानते नहीं. क्या चांदनी देव का पॉलिटिकल करियर फिक्स कर पाती है? देव को रास्ते पर लाने के लिए चांदनी जो जाल बुनती क्या पारो भी उसका निशाना बन जाती है? देव की ज़िंदगी फिक्स करने के चक्कर में कई ऐसी चीजें सामने आती हैं जिन्हें जानकर देव की रूंह कांप जाती है. देव को जो चीजें दिखती हैं वो राजनीतिक गलियारों के लिए तो आम बात है लेकिन उसके लिए नहीं.


एक्टिंग


देव की भूमिका में यहां राहुल भट्ट हैं जो इससे पहले 'फितूर', 'अगली' और 'जय गंगाजल' जैसी कई फिल्मों में नज़र आ चुके हैं. उनकी अच्छी बात ये है कि देव के किरदर के लिए उन्होंने किसी और एक्टर की नकल नहीं की है. उनकी एक्टिंग ओरिजिनल लगती है. अपने हर सीन में वो परफेक्ट लगे हैं. जब वो शराब पीते हैं तो शराबी लगते हैं और प्यार के सीन में रोमांटिक हीरो. ऋचा चड्ढा, सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के बीच वो उभर कर सामने आए हैं.


वहीं ऋचा चड़्ढा भी पारो के किरदार में जमी हैं. वो बोल्ड हैं और उनके हिस्से जितना है उन्होंने अच्छा किया है. लेकिन इमोशनल सीन्स में वो इंप्रेस नहीं कर पाई हैं.



अदिती राव हैदरी ने चांदनी के किरदार के हिसाब से ग्लैमरस हैं, खूबसूरत हैं पर एक्टिंग के मामले में बाकी किरदारों की अपेक्षा कमजोर लगी हैं.  सौरभ शुक्ला एक राजनेता के किरदार में जमे हैं. 'मुक्काबाज' में दिख चुके विनीत कुमार यहां दिखे हैं और जितना स्पेश उनको मिला है उतने में अच्छा किया है.


डायरेक्शन


इससे पहले 'हज़ारों ख्वाहिशे ऐसी' और 'ये साली ज़िंदगी' जैसी फिल्में बनाने वाले सुधीर मिश्रा की इस फिल्म में भी उनका अपना टज दिखता है. उन्होंने मोहब्बत की तलाश में निकले और राजनीतिक विरासत के चक्रव्यूह में फंसे तीनों किरदारों के लिए कहानी का ऐसा जाल बुना है कि दर्शक आखिर तक कुछ कयास नहीं लगा सकता कि क्या होने वाला है. यही इस फिल्म की खासियत है. जिसे देवदास को लेकर अब तक तीन फिल्में बन चुकी हैं  और दर्शकों ने उन्हें काफी पसंद भी किया है. ऐसी फिल्मों के साथ हमेंशा ये डर होता है कि कहीं उसमें दोहराव ना हो. देवदास के किरदार को लेकर हमारे मन में जो पहले से एक इमेज बनी हुई है इसमें वो खत्म हो जाती है.



प्यार को तो उन्होंने दिखाया ही है साथ ही राजनीति में कितना कचड़ा भरा पड़ा है ये भी दिखाया है. राजनीति में जो घुस गया है वो मां-बाप, भाई के हत्यारों से भी मिलकर सत्ता चला सकता है. वो सामने वाले को हराने लिए किसी का चीरहरण करने से भी बाज नहीं आएगा. आजकल छवि बनाने के लिए गरीबों के घर जाना, लोगों से मिला और दलितों के घर खाना ये सब फिक्स होता है. चुकि ये उनकी कहानी का ही हिस्सा है तो फिल्म में आता है और चला जाता है लेकिन उस सीन के साथ ही आज के नेताओं की छवि तुरंत ही सामने आ जाती है. अच्छी बात ये है कि उन्होंने फिल्म में बहुत कुछ दिखाने को कोशिश की है लेकिन उसमें उलझे नहीं है. आखिर में फिल्म अपने लीड किरदारों और ज़िंदगी पर आकर ही खत्म होती है. उन्होंने इसमें पारो, देव और चांदनी तीनों  को दास बनने से बचा लिया है.


कमियां


फिल्म में कमियों की बात करें तो इसकी शुरूआत ही बहुत धीमी है. किरदारों की भूमिका बांधने में ही बहुत ज्यादा वक्त लग जाता है. अदिती राव हैदरी का नैरेशन अटपटा लगता है क्योंकि उनकी आवाज ऐसी डार्क फिल्म की कहानी के हिसाब से दमदार नहीं है. उनकी मधुर आवाज इस फिल्म को कमजोर बना देती है. गनीमत ये है कि नैरेशन कुछ समय के लिए ही है.


म्यूजिक


इसके गाने इस फिल्म को एक अलग लेवल पर ले जाते हैं. 'सहमी है धड़कन' गाना सुकून देने वाला है. आर्को और नवराज हंस की आवाज में 'रंगदारी' गाना इस फिल्म को और मजबूती देता है. स्वानंद किरकिरे की आवाज़ में 'आज़ाद' कर गाना अंदर तक झकझोरता है.



क्यों देखें


आप इस फिल्म को इसलिए देख सकते हैं क्योंकि इस देव का ऐसा वर्जन अब तक कोई और नहीं दिखा पाया है. करीब दो घंटे बीस मिनट की ये फिल्म कहीं भी आपको बोर नहीं करेगी.







Friday, April 20, 2018

Beyond The Clouds Review | मूवी रिव्यू : फिल्म में ईशान खट्टर ने दी है 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' परफॉर्मेंस

स्टार कास्ट: ईशान खट्टर, मालविका मोहनन, गौतम घोष, तनिष्ठा चैटर्जी
डायरेक्टर: माजिद मजीदी
रेटिंग: ***

ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव का आना एक हकीकत है, कभी रिश्ते पहाड़ों से जैसे ठोस और मजबूत हो जाते हैं तो कभी शीशे की तरह नाज़ुक. कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी कोई अपने सपने को सच करने के लिए हर दांव आज़मा लेता है तो कोई गलत राह चुनने को मजबूर हो जाता है. बहुत बार ऐसा होता है कि ज़िदंगी आपको उस मोड़ पर ला खड़ा कर देती है कि आपको वो सब करना पड़ता है जो आपकी पसंद, चाहत, सोच और उसूल के उलट होता है. लेकिन कहते हैं कि यही तो असल जिंदगी है. सामने दुख का पहाड़ हो या परेशानियों का हिमालय, इंसान उन्हीं मुश्किलों में जीना सीख लेता है, सच कहें तो खुशियां भी ढ़ूंढ ही लेता है. भाई-बहन की ज़िंदगी की इसी जद्दोजहद को ईरान के जाने माने डायरेक्टर माजिद मजीदी  ने अपनी फिल्म 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' में पर्दे पर उतारा है. फिल्म का इंतजार इसलिए था क्योंकि मजीदी की पिछली फिल्म 'चिल्ड्रन ऑफ हेवेन' (1997) को ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया था, इस फिल्म को वर्ल्डवाइड काफी तारीफें मिली थीं. इसी फिल्म की कहानी को 'बियोंड द क्लाउड्स' में नए रंग-रूप और तेवर में सलीके से आगे बढ़ाया गया है.


'चिल्ड्रन ऑफ हेवेन' में मजीदी ने ईरान की कहानी दिखाई लेकिन 'बियॉन्ड द क्लाउड्स' में उन्होंने भारत की मिट्टी की खूशबू में रची बसी परंपरा के बीच कहानी को पिरोया है. झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली भाई-बहन की कहानी को दिखाने के लिए उन्हें मुंबई से बेहतर जगह कहां मिलती. फिल्म आने से पहले ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि ये 'स्लमडॉग मिलेनियर' जैसी ही हो सकती है. लेकिन ये फिल्म वैसी बिल्कुल भी नहीं है.

कहानी

इसमें झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले आमिर (ईशान खट्टर) और उसकी बहन तारा निशा (मालविका मोहनन) की कहानी दिखाई गई है. तारा धोबी घाट पर काम करती है और आमिर ज़िंदगी चलाने के लिए ड्रग्स बेचता है. आमिर ज़िंदगी को रॉकटे की तरह उड़ाना चाहता है. अचानक आमिर के अड्डे पर छापा पड़ता है. हालांकि, जैसे तैसे बहन तारा उसे बचा लेती है. दोनों की ज़िंदगी अभी सीधे रास्ते पर आने वाली होती ही है कि एक और हादसा होता है और तारा जेल चली जाती है. आमिर उसे बचाने की कोशिश करता है लेकिन क्या ये उसके लिए इतना आसान है? उसके पास ना पैसे हैं और ना ही कोई सहारा. क्या आमिर उसे जेल से निकाल पाता है. दोनों भाई बहन इस कठिन परिस्थिति में भी कैसे जीने का सहारा ढ़ूढ़ते हैं. यही कहानी है.

एक्टिंग

ईशान खट्टर की ये डेब्यू फिल्म है. इसमें उन्हें देखकर नहीं लगता कि एक्टिंग में वो बिल्कुल नए हैं. चाहे एक्सप्रेशन की बात हो या फिर डायलॉग डिलीवरी की, वो कहीं कमजोर नहीं दिखते. एक लड़का जिसके मां-बाप बचपन में ही छोड़कर चल गए. उसे बड़ा आदमी बनना है. ईशान के चेहरे पर कुछ बन जाने की चमक दिखती है. इसमें ईशान ने ये भी दिखा दिया है कि वो वर्सेटाइल एक्टर हैं. खुशी के पल को जताना हो या फिर इमोशनल सीन हो या फिर दोस्तों के साथ मस्ती के पल... हर जगह ईशान परफेक्ट हैं. ईशान फिल्म के एक सीन में पॉपुलर सॉन्ग मुकाबला में डांस करते भी दिखे हैं.

तारा निशा के किरदार में मालविका मोहनन कमजोर पड़ी हैं या यूं कहें कि ईशान उनपर भारी पड़े हैं. फिल्म के एक सीन में भाई-बहन एक दसूरे से झगड़ते हैं. ये सीन पिछली फिल्म से जोड़ने के लिए दिखाया गया है जिससे पता चलता है कि दोनों एक दूसरे से अलग क्यों रहते हैं. आमिर यहां पूछता है कि वो तब क्यों नहीं कुछ बोली जब उसका हसबैंड आमिर को मारता था. यहां तारा का बहुत ही इमोशनल सीन है. लेकिन यहां ईशान तो इंप्रेस कर जाते हैं लेकिन मालविका पीछे रह जाती हैं. उनके डायलॉग से लेकर रोने-धोने तक सब बनावटी लगता है. इमोशनली उनके कैरेक्टर से खुद को जोड़ना बहुत मुश्किल लगता है. फिल्म में मालविका को जब जेल होती है वहां पर कॉस्ट्यूम और मेकअप से तो सही दिखती हैं लेकिन जैसे ही मुंह खोलती है सब ड्रामे में बदल जाता है.

इसके अलावा तनिष्ठा चैटर्जी भी इस फिल्म में हैं. हालांकि, फिल्म में उनके सीन काफी कम हैं. इसमें बंगाली सिनेमा के जाने माने डायरेक्टर गौतम घोष निगेटिव किरदार में नजर हैं और अपनी भूमिका में फिट बैठे हैं.

डायरेक्शन

मजीदी समाज में हो रही घटनाओं को हूबहू पर्दे पर उतारने के लिए जाने जाते हैं. फिल्म में जो बात सबसे ज्यादा इंप्रेस करती है वो ये है कि मजीदी ने स्लम एरिया की कहानी दिखाई जरूर है लेकिन उसमें सिर्फ गरीबी और गंदगी ही नहीं बल्कि वहां की जिदंगी को भी बखूबी दिखाया है. खास बात ये है कि ढीली स्क्रिप्ट और लीड एक्ट्रेस की कमजोर एक्टिंग के बावजूद आखिर में ये फिल्म बेचैन करती है और दर्शकों को एक उम्मीद के साथ छोड़ जाती है.

लेकिन फिल्म में कई सारे लूप होल्स हैं. इसमें आमिर अपनी बहन को अपनी जान, ज़िंदगी मानता है लेकिन फिल्म में ऐसी स्ट्रॉंग बॉन्डिंग कहीं नहीं दिखती जिससे ये लगे कि कहानी से इंसाफ हो रहा है. शुरुआती सीन्स में बस डायलॉग के जरिए ये बॉन्डिंग दिखाने की कोशिश की गई है.

इंडियन सिनेमा में मजीदी की ये डेब्यू फिल्म है. मिडिल क्लास फैमिली में पले-बड़े मजीदी रियलिस्टिक सिनेमा बनाते हैं. हालांकि इस फिल्म में किरदारों से खुद को जोड़ पाना कुछ सीन्स में जरा मुश्किल सा लगता है. अब इसे सिर्फ डायरेक्शन और स्क्रिप्टिंग की कमी कहें या फिर एक्टर्स की परफॉर्मेंस की. कारण चाहे जो हो लेकिन फिल्म कई बार आपको निराश व कन्फ्यूज करती नजर आती है, वहीं फिल्म में इंग्लिश डायलॉग्स भी आपको अटपटे लगते हैं.

यहां डायरेक्टर ने जेल में रह रहे छोटे बच्चे और महिला कैदियों की ज़िंदगी को भी दिखाने की कोशिश की है लेकिन यहां वो भी नाकाम रहे. तनिष्ठा चैटर्जी जैसी बेहतरीन एक्ट्रेस को उन्होंने कुछ ही मिनट दिए हैं. अगर उन्हें और मौका मिलता तो वो जेल के सीन जान फूंक डालती.

सिनेमैटोग्राफी

इस फिल्म के कुछ सीन्स बहुत ही शानदार फिल्माए गए हैं जोकि आमतौर पर फिल्मों में देखने को नहीं मिलते. मुंबई बेस्ड तो न जाने कितनी कहांनियां आपने बॉलीवुड फिल्मों में देखी होंगी लेकिन इस फिल्म जैसे सीन्स नहीं देखें होंगे.

इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफर अनिल मेहता हैं जो इससे पहले 'हम दिल दे चुके सनम', 'लगान', 'वीर-ज़ारा', 'रॉकस्टार' और 'हाईवे' जैसी फिल्मों के लिए तारीफें बटोर चुके हैं. फिल्म के डायरेक्शन की कमियां सिनेमैटोग्राफी पूरा करती हैं.

म्यूजिक 

इस फिल्म के लिए ओरिजिनल स्कोर और साउंड ट्रैक दोनों ही ए. आर. रहमान ने दिया है. लेकिन इसमें उनका म्यूजिक ऐसा नहीं है जो फिल्म देखने के बाद याद रह जाए. जिन्होंने ए. आर. रहमान से स्लमडॉग मिलेनियर जैसी उम्मीद थी उन्हें तो निराशा होगी.

क्यों देखें

अगर आप टिपिकल बॉलीवुड मसाला फिल्में पसंद करते हैं तो ये आपके लिए बिल्कुल भी नहीं है. लेकिन अगर आपको समाज से जुडी रियलिस्टिक फिल्मों में दिलचस्पी है तो इसे देखा जा सकता है. इस फिल्म का London Film Festival में पिछले साल प्रीमियर हुआ जहां इसने काफी तारीफें बटोरी. अगर आप कुछ अलग देखना चाहते हैं आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. इसके साथ ही ये फिल्म आप ईशान खट्टर की एक्टिंग के लिए भी देख सकते हैं.





Monday, April 02, 2018

Movie Review : Baaghi 2




स्टार कास्ट: टाइगर श्रॉफ, दिशा पटानी, मनोज बाजपेयी, रणदीप हुड्डा
डायरेक्टर- अहमद खान
रेटिंग: ***


बॉलीवुड में आज ऐसा दौर है जब मेकर्स हर फिल्म में कश्मीर, तिरंगा आर्मी, ड्रग्स जैसे मुद्दे जरूर डालते हैं. फिल्म की कहानी भले ही कुछ हो लेकिन बैकग्राउंड ऐसा कुछ जरूर बना दिया जाता है. 'बागी 2' में भी ऐसा ही हुआ है. इस फिल्म में लीड किरदार और आर्मी के जवान रनवीर प्रताप सिंह (रॉनी) के किरदार को मजबूत बनाने और उसकी देशभक्ति जाहिर करने के लिए एक ऐसे सीन का भी इस्तेमाल किया गया है जिस पर देश में खूब बवाल मच चुका है. पिछले साल कश्मीर की एक वीडियो वायरल हुई थी जिसमें सैनिकों को पत्थरबाजी से बचाने के लिए मेजर नितिन गोगोई ने अपनी जीप पर कश्मीरी युवक फारूक अहमद डार को बांधकर वहां से बच निकलने के लिए ढा़ल के रूप में इस्तेमाल किया था. इस पर खूब विवाद हुआ. इसे हुबहू इस फिल्म में उतार दिया गया है. हालांकि वो सीन कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता. ना तो देखकर देशभक्ति जगती है और ना ही कोई भाव आता है. मेकर्स इस सीन को दिखाकर क्या साबित करना चाहते थे शायद उन्हें ये खुद भी नहीं पता होगा. रॉनी की ट्रेनिंग आर्मी में हुई है और उसके कैरेक्टर को मजबूत दिखाने के लिए ये सीन नहीं भी रहता तो कोई फर्क नहीं पड़ता. खैर, अगर इसे नज़रअंदाज करें तो टाइगर श्रॉफ की इस मोस्ट अवेटेड फिल्म में प्यार है, रोमांस है, एक्शन है, इमोशन है. दो घंटे 20 मिनट की ये फिल्म आपको कहीं भी बोर नहीं करती. इस एक्शन थ्रिलर फिल्म में आखिर तक सस्पेंस बरकरार रहता है कि आखिर आगे क्या होने वाला है.

कहानी

गोवा की कहानी है. कॉलेज में रनवीर प्रताप सिंह (रॉनी) को नेहा (दिशा पाटनी) से प्यार हो जाता है. दोनों शादी करने वाले होते है तभी नेहा के साथ कुछ ऐसा होता है कि वो रॉनी को छोड़कर चली जाती है. नेहा पापा की पसंद से शादी कर लेती है. रॉनी आर्मी ज्वाइन कर लेता है. अचानक चार साल बाद जब नेहा की बेटी रिया का अपहरण हो जाता है तो वो रॉनी को फोन करती है और मदद मांगती है.

रिया की तलाश के दौरान पुलिस से लेकर पड़ोसी तक हर कोई यही बताता है कि नेहा की कोई बेटी है ही नहीं. तो क्या नेहा झूठ बोल रही है या लोग? या फिर कहानी कुछ और ही है. यही सस्पेंस है और आखिर तक बरकरार रहता है. ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी. इन सब के बीच ये भी दिखा है कि हमारे पुलिस सिस्टम को भ्रष्टाचार किस कदर बर्बाद कर रहा है. भ्रष्टाचारियों के लिए पुलिस है लेकिन जब पुलिस ही ये सब करने लगे तो फिर क्या हो? ड्रग्स का धंधा कैसे और कौन चलाता है ये भी दिखा है.

एक्टिंग

'बागी' के मुकाबले इस फिल्म में टाइगर श्रॉफ ने अच्छी एक्टिंग की है. या यूं कहें तो वो बॉलीवुड में एक्शन के मास्टर होते जा रहे हैं. फिल्म में उनके एक्शन सीन्स ऐसे हैं जो रोंगटे खड़े कर देते हैं. शर्टलेस टाइगर को देखकर शायद सलमान खान को भी जलन हो. अगर कहीं उन्होंने मार खाई है तो वो है इमोशनल सीन्स जिसमें वो भावहीन लगे हैं. बागी में श्रद्धा कपूर के साथ रोमांस करने वाले टाइगर इसमें अपनी तथा कथित गर्लफ्रेंड दिशा पाटनी के साथ जमे भी हैं.

लेकिन दिशा पाटनी इस फिल्म में एक्टिंग के मामले में बहुत कमजोर दिखी हैं. उनके साथ एक पेरशानी ये भी है कि वो हिंदी ठीक से नहीं बोलती हैं. अब ऐसा एक्सेंट उन्होंने खुद बनाया है  क्योंकि बॉलीवुड में ये फैशन भी है. इसके अलावा वो इसमें लीड किरदार हैं लेकिन जब उनकी बेटी गायब हो जाती है और वो परेशान होती हैं, रो रही होती हैं लेकिन कहीं भी उनके चेहरे पर भाव नहीं दिखता. इमोशनल दृश्यों उनकी वजह से कुछ प्रभाव नहीं छोड़ पाते. जहां ग्लैमरस लुक और खूबसूरती की बात है वहां तो दिशा जमी हैं लेकिन वाकई जहां उन्हें अभिनय करना है वो पीछे रह गई हैं.

हालांकि दिशा की वजह से ये फिल्म कमजोर नहीं पड़ी है क्योंकि बाकी सभी किरदारों ने संभाल लिया है. मनोज वाजपेयी तो मंझे हुए एक्टर हैं ही उन्होंने डीआईजी की भूमिका में संभाला है. फिल्म में जब एसीपी एलएसडी की भूमिका में स्क्रीन पर जब रणदीप हुड्डा की एंट्री होती है तो सब फीके पड़ जाते हैं. उड़ते पंजाब को जमीन पर लाकर एलएसडी डूबते हुए गोवा को किनारे पर लाने पहुंचते हैं. उनकी एंट्री के बाद फिल्म थोड़ी ह्यूमरस भी हो जाती है. रणदीप के हिस्से अच्छे डायलॉग्स भी हैं. इस फिल्म में उनका लुक भी बहुत अलग है जो लुभाता है.

ड्रग्स लेने वाले शख्स की भूमिका में प्रतीक बब्बर भी है और क्यों है ये भी एक सवाल है.

डायरेक्शन
अहमद खान ने इसे डायरेक्ट किया है. उन्होंने रॉनी के किरदार को ऐसा गढ़ा है कि कोई सवाल ना उठा सके कि एक आदमी दो सौ लोगों को कैसे अकेले मार देता है. रॉनी की ट्रेनिंग आर्मी में हुई है. डायरेक्शन की तारीफ इसलिए करनी होगी क्योंकि कोई भी सीन बनावटी नहीं लगता.  फिल्म के कुछ सीन्स भी बहुत कमाल के हैं. कैमरा वर्क पर अच्छा काम हुआ है.

म्यूजिक

वैसे तो फिल्म के सभी गाने बहुत पॉपुलर हो चुके हैं. बस एक सवाल उठता है कि इसमें 'एक दो तीन' जैसे आइटम सॉन्ग को क्यों घुसेड़ा? फिल्म रफ्तार में चल रही होती और तभी बीच में ये गाना आ जाता है जो पहले ही विवादों में रह चुका है. फिल्म में जिस जगह इसे दिखाया गया है वो जबरदस्ती लगता है. इसमें कुल 6 गाने हैं जिसमें से आतिफ असलम की आवाज में 'ओ साथी' कानों को सुकून देता है.

क्यों देखें/ना देखें

अगर आप काफी दिनों से ऐसी फिल्म का इंतजार कर रहे थे जिसमें इंटरटेनमेंट के साथ एक अच्छी कहानी भी हो तो इसे फैमिली के साथ जरूर देखिए. लेकिन अगर आपको एक्शन फिल्में पसंद नहीं हैं तो आप निराश हो सकते हैं.