Wednesday, January 29, 2014

काम ना आया स्टार पावर: 'मोदी फैक्टर' से नहीं इस वजह से सलमान की नहीं हुई 'जय हो'!

बॉलीवुड सपुरस्टार सलमान खान की फिल्म 'जय हो' की बॉक्स ऑफिर पर कुछ अच्छी ओपनिंग नहीं मिली. पिछले साल उनकी कोई फिल्म रिलीज नहीं हुई थी तो उनके फैंस को यह उम्मीद थी कि सलमान इस बार थोड़ा अलग मसाला और इंटरटेनमेंट पैकेज लोगों को दिखाने वाले हैं. रिलीज होने से पहले यह कयास लगाए जा रहे थे फिल्म आम आदमी से जुड़ी हुई है तो हिट होगी. क्योंकि जब आम आदमी केजरीवाल हिट हैं तो सलमान क्यों नहीं?
लेकिन पिछली फिल्मों की तुलना में इस बार सलमान खान का सुपरस्टार पॉवर काम नहीं आया. अगर किसी और अभिनेता की फिल्म के साथ ऐसा होता तो यही कहा जाता कि फिल्म की स्क्रिप्ट ढ़ीली थी. स्टोरी लाइन बकवास थी, एक्टिंग अच्छी नहीं की, म्यूजिक कुछ खास नहीं था या फिर जरूरत से ज्यादा लंबी फिल्म थी आदि आदि... फिर यह बात यहीं खत्म हो जाती. तो फिर सलमान खान के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ? लेकिन यहां तो कुछ और ही मामला है. यहां नरेंद्र मोदी फैक्टर को भुनाया जा रहा है.
फिल्म समीक्षक कोमल नाहटा का कहना है कि मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से ने सलमान की फिल्म जय हो का बहिष्कार कर दिया क्योंकि मोदी को लेकर सलमान का बयान उन्हें नापसंद था. इसी वजह से फिल्म पहले दिन अच्छी कमाई नहीं कर पाई. सुनकर बड़ा ही बेतुका लगा कि एक फिल्म समीक्षक ऐसा कैसे कह सकता है? आकड़े यह भी तो साबित कर सकते हैं कि उनकी फिल्म में वह दम नहीं कि लोगों को थियेटर तक खींचकर लाए. जिसका काम ही है हमारा मनोरंजन करना उसकी फिल्म को उनके फैंस सिर्फ इसलिए देखने नहीं गए क्योंकि उन्होंने मोदी की प्रंशसा की थी. ये बात कुछ हजम नहीं हुई. खैर...
अगर इस बात में सच्चाई है तो इसका मतलब तो यह है कि वे चुनिंदा लोग जो सलमान का विरोध कर रहे हैं अपनी खुद की राय रखते ही नहीं. वह दूसरों की राय को ही अपनी राय बना लेते हैं. सलमान खान ने कहा था, 'जब नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट मिल गई है तो वह गुजरात दंगों के लिए माफी क्यों मांगे?' सलमान खान ने उसी बात को रिपीट किया था जो कोर्ट ने कहा, मीडिया ने छापा. क्या इस देश के लोगों को न्यायिक प्रणाली पर भरोसा नहीं है? या फिर सलमान खान अब एक्टिंग छोड़कर समाजसेवा शुरू करने वाले है जो वह लोग जो चाहते हैं वही बोलें.
फैंस क्या यह भूल गए हैं कि यहां पर हर किसी को अपनी बात कहने का हक है. लोकतंत्र है.. कहां लिखा है कि सेलिब्रिटी अपनी राय लोगों के सामने नहीं रख सकता. सलमान खान फिल्म को प्रमोट करने गुजरात गए, नरेंद्र मोदी से मिले, पतंगे उड़ाई, मीडिया से रूबरू हुए. हालांकि इस दौरान उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मोदी को वोट दीजिए उन्हें प्रधानमंत्री बनाइए. हां इतना जरूर कहा था कि मोदी को मेरी जरूरत नहीं वो खुद ही पॉपुलर हैं. कई मुस्लिम संगठनों ने तो हाय तौबा मचा दिया. किसी का कहना था कि सलमान ने मुस्लिम समुदाय के भावनाओं को आहत किया है, अब उनको बॉयकॉट करो, उनकी फिल्म मत देखो.

सलमान खान के वे फैंस जिन्होंने मोदी से मुलाकात की वजह से उनका बॉयकाट किया उनसे मुझे  सिर्फ इतना ही कहना है कि सलमान खान की लाइफस्टाइल को फॉलो करें उनकी सोच को नहीं. उनके अभिनय की तारीफ करें ना कि उनके विचारों की आलोचना... फैन होने का मतलब यह नहीं है कि आप आंख बंद करके किसी को फॉलो करें. सलमान खान इंटरटेनर हैं और उन्हें इसी निगाह से देखा जाना चाहिए.
मैं भी सलमान खान की प्रशंसक हूं. मुझे पसंद है उनकी कुछ फिल्में, उनका अभिनय. मैंने 'जय हो' नहीं देखी. लेकिन कारण सिर्फ एक है कि इस फिल्म ने मुझे इतना आकर्षित नहीं किया कि मैं देखूं. एक आम इंसान की तरह वह अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं पर जरूरी नहीं कि उनकी हर बात से मैं सहमत होऊं. ऐसा भी नहीं है कि उनकी बात मुझे पसंद ना आए तो मैं उनकी फिल्मे देखाना बंद कर दूं. ऐसा पहली बार नहीं है इससे पहले भी कई सेलिब्रिटी मोदी से मिल चुके हैं. अमिताभ गुजरात के ब्रांड एंबेसडर है इसका मतलब यह है कि एंटी मोदी लोग अमिताभ की फिल्मे देखना बंद कर देंगे.
इससे क्या फर्क पड़ता है कि सलमान खान किसे प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं. इस बारे में तो हमें अपनी राय बनानी चाहिए. यहां कोई नरेंद्र मोदी को पसंद करता है तो कोई राहलु गांधी को ..कुछ लोगों किसी और को भी पीएम बनते देखना पसंद करते हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या अपनी राय इस बात से बनाते है कि वो जिन्हें फॉलो करते है वह किसका भक्त है. अगर ऐसी बात है तो फिर तो हम खुद नहीं किसी और की सोच को बढ़ावा दे रहे हैं.
फिल्म समीक्षा पढ़ी जाय तो कहीं ना कहीं यह बात सामने आती है कि सलमान खान लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए. सलमान लोगों को वो पैकेज देने में नाकामयाब रहे जो उनसे उम्मीद की जा रही थी. फैंस को यह भी उम्मीद भी थी कुछ कमाल कर देंगे सलमान खान इस बार जो कि नहीं हो पाया. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि उनकी फिल्म फ्लॉप हो गई.



यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम एक कलाकार को सिर्फ इसलिए टारगेट कर रहे हैं कि वह किसी राजनेता से मिलने गया. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है. हमारा संविधान सबको बराबरी का हक देता है. हमें कलाकारों को जाति धर्म मजहब से परे होकर देखना चाहिए ना कि उन्हें इन बातों को लेकर टारगेटर करना चाहिए.

Monday, January 27, 2014

'ड्रग्स और शराब चलेगा क्या कर लोगी?'

अब छेड़खानी और रेप की खबरें सुननी आम बात सी हो गई है. कल रात की ही बात है जब एक लड़की के दोस्तों ने ही रेप करके उन्हें कार से बाहर फेंक दिया. ऐसी तो बहुत सारी खबरें सुनने को मिलती हैं लेकिन कल गणतंत्र दिवस था. सुरक्षा चाकचौबंद थी. पुलिस ने तो कुछ ऐसा ही दावा किया था लेकिन फिर ऐसी घटना कैसे हो गई?  कहीं ना कहीं यह पुलिस की नाकामी का ही नतीजा है.


कभी कभी अनायास ही मन में सवाल आते हैं कि क्या अपराधियों को कानून का डर क्यों नहीं? क्या उन्हें इस बात का खौफ नहीं कि एक अपराध से उनकी पुरी जिंदगी बर्बाद हो सकती है? लेकिन जिस तरह से इस क्राइम का ग्राफ ऊपर जा रहा है उससे तो यही लगता है कि लोगों में कानून और पुलिस प्रशासन का डर है ही नहीं.


डर नहीं होने का कारण भी पुलिस ही है. उनकी हरकतें, अपने काम के प्रति उनकी लापरवाही, किसी भी शिकायत को गंभीरता से ना लेना और फिर सुन भी ली तो एक्शन लेने की जरूरत तो उन्हें लगती नहीं. अब जब पुलिस ही ऐसा करेगी तो लोग डरेंगे भी क्यों?

खुद के साथ भी बड़ा ही कड़वा अनुभव रहा है. कल रात की ही बात है. कुछ ब्लैक शराब बेचने वालों से हमारी झड़प हो गई. बस वे लोग 26 जनवरी को ड्राई डें होने का फायदा उठा रहे थे. सुबह से लेकर शाम हो गई यह देखते देखते की इनका ड्रामा कब खत्म होगा. देखना इसलिए पड़ रहा था कि यह सब हमारे फ्लैट के सामने ही हो रहा था. पिछले 2 साल से देख रहे हैं कि ऐसा होता है. फर्क इतना है कि कभी हम बाहर निकलकर 

बोल देते हैं कि यहां से कहीं और जाकर यह सब काम करो. कुछ लोग है जो कि चुपचाप चले जाते हैं कुछ लोग है जो हमें यह बताने लगते हैं कि हम यहां के नहीं है तो हमें इन सब पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए और ये सब इग्नोर करना चाहिए. कुछ हद तक हम लोग इग्नोर करते भी है. क्योंकि जब दिल्ली पुलिस काम ये सब संभाल पा रही तो हम क्या करेंगे. कंप्लने भी कई बार कर चुके हैं लेकिन पुलिस ही है तो क्या काम करेगी सभी को पता है.


कल शाम के 7-8 बज रहे थे. हमने गेट खोला तो सामने यह सब चल रहा था. जब उनसे यह कहा कि प्लीज आप लोग यहां से कहीं और चले जाइए तो उनका कहना था कि रेंट पे रहते हो तो मत बोलो, तुम्हारा घर होता तो कोई और बात होती. हमने कहा- अच्छा नहीं लगता...यहां लड़कियां रहती हैं आप लोग यहां से कहीं और जाओ नहीं तो हम लोग पुलिस को कंप्लेन करेंगे. उसका कहना था कि पुलिस क्या कर लेगी? सबको ही पता है कुछ नहीं करेगी लेकिन फिर हमने कहां बहुत कुछ कर लेगी चुपचाप जाओ यहां से. उनका कहना था- नहीं जा रहे क्या कर लोगे? 


हमने फिर पुलिस को फोन किया.. सोचा दिल्ली पुलिस है कम से कम आज के दिन तो लापरवाही नहीं बरतेगी. समय से पहुंच ही जाएगी. वे लोग हमें डराने की कोशिश में हमारे गेट तक आ गए. बस अब तो बर्दाश्त के बाहर था.. ना चाहते हुए भी घर से बाहर आकर उनसे लड़ने में हम भी लग गए कि तब तक तो पुलिस पहुंच ही जाएगी. लेकिन शायद हम गलत थे. यहां पुलिस क्राइम होने के बाद ही पहुंचती है तो इतिहास रहा है फिर हमारे साथ ऐसा क्यों नहीं होता?


वे लोग बात लड़ाई से बढ़ाते-बढ़ाते हाथापाईं तक ले आए...शायद उनकी  मंशा कुछ और ही रही होगी. उन्हें लगा कि लड़कियां है डर जाएंगी.. डर तो जरूर जाती ..लेकिन शायद आदत नहीं रही डरने की,.. किसी से भी.. आश्चर्य की बात ये थी कि जो आस पास के लोग थे वे तमाशबीन की तरह देख रहे थे और शायद मजे भी ले रहे होंगे.


मैं और मेरी रूमी संगीता... जब हम आगे बढ़ने लगे तब वे लोग डरे और भगे वहां से यह कहते हुए कि आगे गली में आ जाओ फिर तुम्हें बताते हैं..अब कोई ऐसी बात बोलता है तो सच कहूं तो बर्दाश्त नहीं होता. बचपन से कभी आदत नहीं रही किसी की भी ऐसी बातें सुनने की. यहां तक कि घर में पैरंट्स ने तो हमेशा से ही सिखाया है कि जब अपनी गलती ना हो और कोई तुम्हें बेवजब परेशान करने की कोशिश करें तो उनसे लड़ो..जरूरत पड़े तो हाथ-लात घूसे  देके आओ...लेकिन डरना किसी से नहीं और कभी भी नहीं. खैर,


...उस गुस्से में तो यही लग रहा था कि अब जाकर भी देख लेते हैं गलियों में कि वे लोग क्या करते है.. गए भी लेकिन वे लोग भाग पराए. कुछ ही सकेंड में सब अपने अपने घऱों में छिप गए. पास के ही थे बस मौके का फायदा उठाकर ऐसा कर रहे थे क्योंकि उन्हें इस बात की पहले से खबर थी कि हमारे लैंडलार्ड इस समय कुछ दिनों के लिए दिल्ली में नहीं है.


...लगभग 15 मिनट बाद पेट्रोलिंग वाले का फोन आया कि हां जी क्या बात है...और आप लोगों का एड्रेस हमें नहीं मिल रहा है. बहुत आश्चर्य हुआ यह सुनकर क्योंकि पुलिस स्टेशन हमारे फ्लैट से बस आधा किलोमीटर की दूरी पर है... और उन्हें अपने एरिया में कौन सा एड्रेस कहां पर है यह भी नहीं पता..चलो जी कोई बात नहीं... लोकेशन बताया..फिर आए..परेशानी सुनी..फिर कहा- मामला शांत हो गया, अब हमारे एसआई साहब आएंगे उन्हें लिखित एप्लिकेशन दे दीजिएगा आप लोग.

वैसे ये कंप्लेन हम पहली बार नहीं कर रहे थे..इससे पहले भी हम यह लिखित कंप्लने कर चुके थे कि यहां पर शराब, ड्रग्स जैसी चीजें खुलेआम बेची जाती है. हमें बेचने से क्यों परेशानी होगी जब पुलिस ही कुछ नहीं करती..परेशानी बस इस बात से है कि यह सब हमारे रेसिडेंस के आस पास ही होता है.


हमने कहा जी ठीक है..देखते है कंप्लने के लिए पुलिस कितनी देर में आती है..लगभग आधे घंटे बाद आ गई पुलिस. झगडे की वजह पूछी, किसने किया..शुक्र है कि हमें उस इंसान के बारे में पता चल गया था जिसने इस झगड़े की शुरूआत की थी. हमने घर बताया पुलिस वहां पहुंच तो  गई लेकिन वैसा ही हुआ जैसा बहुत पहले से होता आया है. वह घर से गायब था..उसके घर की औरते पुलिसवालों से ही उलझ गईं. बजाय हमारी प्राब्लम औऱ उस आदमी को ढ़ुढ़ने के पुलिस उन्हें चुप कराने में लग गई.


सब के बाद पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि हमें कई सारे नंबर दे दिए कि जब भी ऐसा कुछ लगे तो हम उन्हें इन्फार्म कर दें. फिर वे आएंगे और ऐसी हरकतें करने वाले लोगों को अरेस्ट करेंगे. वाह रे पुलिस...


बहुत ही आश्चर्य हुआ कि अगर हमारे साथ कुछ और अनहोनी हो जाती तो पुलिस को बार बार फोन करके घर का रास्ता कौन बताता... वे लोग हमसे मारपीट करके अगर भाग जाते तो पुलिस उन्हें कैसे गिरफ्तार कर पाती. वैसे ये मारपीट से कम नहीं थी.. अकेली लड़कियों को देखकर उनके घर में घुसने की कोशिश करना ... उनसे लड़ना और फिर हाथापाई करना यह किसी अपराध से कम नहीं है. ऐसे में इतना तो हमें भी पता है कि पुलिस को क्या करना चाहिए. खासकर तब जब उनके  सामने बीसों गवाह मौजूद हैं. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.


यह तो पहले से पता था कि दिल्ली पुलिस कितनी अलर्ट रहती है लड़कियों की सुरक्षा को लेकर...लेकिन कल इस बात की एक मिसाल भी दे दी इन लोगों ने. एक पल के लिए ऐसा लगा कि अगर यहां रहना है तो दिल्ली में जिसे भी रहना है वह खुद को इस काबिल बना ले कि सारे मुसीबतों से खुद ही निबट ले. पुलिस तो बस सरकार के पैसे लेती रहेगी और यह दिखावा करती रहेगी कि हां जी हम काम तो कर ही रहे हैं.. भले ही किसी का रेप हो रहा हो और उन्हें कोई उन्हें हेल्प के लिए फोन करे तो उन्हें अंग्रेजी ही समझ ना आएकि लड़की क्या बोल रही है.. भले ही कहीं 4-6 लोग लड़कियों से जबरदस्ती लड़ने की कोशिश कर रहे हों ये पुलिस के लिए कोई बड़ी बात नहीं..


लेकिन इन सब हालातों से गुजरने के बाद एक बहुत बड़ा सवाल है...कल मौका देखकर हमारे साथ लड़ने की कोशिश की.. दूसरे दिन कुछ औऱ प्लान करेंगे... अगर हमारे साथ कुछ अनहोनी हो गई तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? किसी ने हमारे साथ कुछ बुरा कर दिया तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? ये कुछ ऐसे सवाल है जो कल से ही जेहन में उभर रहे हैं लेकिन कोई जवाब नहीं दिख रहा....

Tuesday, January 21, 2014

सोशल मीडिया के यूजर्स के लिए एक सीख दे गई हैं सुनंदा पुष्कर..


कुछ बातें होती है जिनमें लोग हमेशा दिलचस्पी दिखाते हैं. उन्हीं में से एक है एक्सट्रा मैरिटल अफेयर. बात चाहे किसी आम आदमी का एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर हो या फिर किसी सेलिब्रिटी का ...लोग मजे भी लेते हैं और बड़े चाव से जानने की कोशिश में लगे रहते हैं.

ऐसा ही कुछ तब हुआ जब केंद्रीय मंत्री  शशि थरूर का ट्विटर अकाउंट हैक हो गया. थरूर के अकाउंट से कुछ ऐसे ट्वीट पढ़ने को मिले जिससे ऐसा लगा कि पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार और थरूर के बीच 'कुछ' चल रहा है. सब लोग ट्विटर पर मजे ले रहे थे. लेते भी क्यों नहीं..


शशि थरूर सोशल मीडिया पर अपने विचारों को बेबाकी से रखने के लिए लोकप्रिय हैं और उनकी फैन फॉलोविंग भी अच्छी खासी है. अगर आपको याद हो तो जब सुनंदा पुष्कर से उनके अफेयर की खबरें आई थीं तो लोगों ने अपनी दिलचस्पी खूब दिखाई थी. सुनंदा के चक्कर में तो थरूर ने केंद्रीय मंत्री का पद भी छोड़ना पड़ा था. इस पर चुटकी लेते हुए नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि थरूर के लिए सुनंदा 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड साबित हुईं. जवाब में थरूर ने कहा कि प्रेम की कोई कीमत नहीं होती. कुल मिलाकर मामला प्रेम का था.  लेकिन अब तो मामला सिर्फ प्यार का नहीं...सरहद पार एक पाकिस्तानी पत्रकार के साथ अफेयर का था. एक तो अफेयर,  दूसरा पाकिस्तान और तीसरा मुख्य भूमिका में थी पाकिस्तानी पत्रकार. लोग क्यों नहीं जानना चाहते...खैर,

लेकिन किसी ने सोचा नहीं था कि सुनंदा ऐसा कदम उठा लेंगी. ऑफिस से निकलते समय यह सोचा भी नहीं था घर जाकर ऐसी खबर देखने को मिलेगी. गहरा धक्का लगा यह सुनकर कि सुनंदा पुष्कर की मौत हो गई है. एक पल के लिए ऐसा लगा कि काश ये खबर झूठी होती... सुनंदा के साथ अगर कुछ गलत हो रहा था उन्हें लड़ना चाहिए था... अपने हालात से..खुद से..समाज से..मीडिाय से.. या जरूरत पड़ी तो अपने पति शशि थरूर और मेहर तरार से भी..लेकिन ये सब सोचने का क्या फायदा यहां तो कुछ और ही हो चुका था. 

पहला सवाल खुद से यही पूछा...क्या सभी परेशानियों, डिप्रेशन, बेवफाई और धोखे से बचने का रास्ता मौत ही है? ऐसी क्या स्थितियां होती हैं कि उसके आगे इंसान को अपनी जिंदगी बदसूरत लगने लगती है? परेशानियां बड़ी और जिंदगी छोटी महसूस होने लगती है? सारे रास्ते बंद दिखाई देते हैं.  कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों किया होगा...आ तो अब तक भी नहीं रहा..

सुनंदा के ट्वीटर को खंगाला तो यही सामने आाया कि वह बहुत डिप्रेस्ड चल रही थीं... लोग उनसे ज्यादा उस पत्रकार मेहर तरार को महत्ता दे रहे थे जो इस लव  ट्राएंगल में मुख्य भूमिका में थीं. सुनंदा को लग रहा था कि मीडिया हाइप मचा रहा है. यह उनकी पर्सनल लाइफ है. वैसे तो यह उन लोगों की व्यक्तिगत जीवन का ही मामला था लेकिन शायद यह बात उन्हें पहले ही सोचनी चाहिए थी कि कुछ बातें व्यक्तिगत भी होती हैं. लेकिन थरूर दंपति ने कभी कुछ व्यक्तिगत रखा ही नहीं..सब कुछ सार्वजनिक ही हुआ तो अब क्यों नहीं?

कहते हैं कि हर बात के दो पहलू होते हैं. एक सकारात्मक और एक नकारात्मक. और यह सबके साथ ही लागू होता है. सिर्फ अफेयर ही नहीं शशि थरूर को उनके विचारों के लिए भी जाना जाता है. उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं. वे सोशल मीडिया पर भी काफी लोकप्रिय हैं. जिस ट्वीटर की वजह से शशि थरूर को लोकप्रियता मिली उसी की वजह से उनकी जिंदगी से कोई खास हमेशा के लिए उनका साथ छोड़कर चला गया. लेकिन इतना जरूर है कि यह एक ऐसा उदाहरण है जिससे सोशल मीडिया पर छाए रहने वाले लोग 'सीख' ले सकते हैं. जरूरी है कुछ बातें जो पर्सनल है उन्हें पर्सनल ही रखा जाए.

मौत का रास्ता ही क्यों चुना?
जांच में यह बात सामने आ गई है कि यह मौत नेचुरल नहीं था. दवाओं के ओवरडोज से यह मौत हुई. यह पहली बार नहीं है जब इस तरह सूर्खियों में रहने वाली किसी महिला ने मौत का रास्ता चुना है. अगर आपको याद हो तो इससे पहल चांद मोहम्मद और अनुराधा बाली के प्यार की खबरें भी मीडिया में खूब छाई  रहीं. लेकिन बाद में मौत के साथ ही यह इस प्यार 2012 में  हो गया. बॉलीवुड अभिनेत्री जिया खान ने भी लव ट्राएंगल के चक्कर में अपनी जान गवां दी. उन्हें यह शक था कि उनका ब्वायफ्रेंड सूरज पंचोली का किसी और से अफेयर चल रहा है जिसकी वजह से वह उनको समय नहीं देता था.

इस सभी के मौत की एक ही वजह रही- प्यार. जहां लोग कहते हैं कि जिंदगी में प्यार नहीं तो कुछ भी नहीं वहीं पर किसी की बेवफाई की वजह से इतनी खूबसूरत जिंदगी को कोई कैसे गवां सकता है? मरने के अलावा और भी तो कई रास्ते हो सकते हैं..अगर आपको किसी से शिकवा शिकायत है तो आप अपने लिए लड़ सकते हैं. स्थानीय कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं. महिलाओं के लिए इतने कानून है उनका सहारा ले सकते हैं फिर मौत ही क्यों?

यह सवाल मैं खुद से कर रही हूं ... लेकिन कोई जवाब नहीं सूझ रहा...

बस एक यही अपील है सभी महिलाओं से कि अपनी जिंदगी को किसी और को हैंडल मत करने दो. खुद के लिए जियो...खुद से इतना  प्यार करों कि किसी और का प्यार उस पर हावी ना हो... अपनी जिंदगी किसी और के प्यार के सामने तुच्छ ना लगें...

अपने लिए लड़ो...समझदार बनों!


Sunday, January 05, 2014

अब बाहर से ज्यादा घर में असुरक्षित हैं महिलाएं...

किसी ने सच ही कहा है कि आज भी आदम की बेटी हंटरों की जद में हैं, हर गिलहरी के बदन पर धारियां जरूर होंगी. 16 दिसंबर 2012 को हुए गैंगरेप के बाद देश में एक क्रांति की शुरूआत हुई. इस घटना ने लोगों की रूह को कंपा दिया. निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए लोग सड़कों पर उतर आए.


जन आंदोलन हुए. लोगों ने सरकार के खिलाफ खूब नारे लगाए. आलोचनाएं कीं.  खूब मोमबत्तियां भी जलाईं. भाषण दिए.  कुछ तो उस आंदोलन की हवा में बह गए . कुछ ने देखादेखी कर दी. लेकिन इतना सब करने का क्या फायदा मिला?  लोगों ने इंडिया गेट से लेकर जंतर मंतर तक खूब धरने दिए. एक क्रांति आई.. लेकिन वह क्रांति नहीं आई जिसकी जरूरत थी. जरूरत थी विचारों के क्रांति की..सोच के क्रांति की.. खुद को बदलने के क्रांति की. दोषारोपण करने से क्या होता है. लोगों ने तो सरकार को दोषी ठहराया कि कड़े कानून नहीं हैं इसलिए ऐसी घटनाएं हो रही हैं. लेकिन यह हकीकत है कि कानून से डर पैदाकर अपराध को नहीं रोका जा सकता है. अपराध कम तभी होगा जब लोग खुद में बदलाव लाएंगे.

महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कानून भी आए लेकिन क्या सिर्फ कानून के डर से इस क्राइम पर लगाम लगाया जा सकता है? आकड़ों पर नजर डालें तो शायद कहेंगे नहीं. आज भी रेप और छेड़छाड़ के मामलों का ग्राफ नीचे नहीं ऊपर की तरफ तेजी से बढ़ता जा रहा है.  2013 में दिल्ली में रेप के कुल 1559 मामले दर्ज हुए है जो कि 2012 की तुलना में दोगुना से भी ज्यादा है. लेकिन सबसे बड़ी चौकाने वाली बात यह है कि इसमें से 1347 रेप तो घर के अंदर ही हुए हैं जिसे किसी रिश्तेदार या फिर किसी जानने वाले ने किया है.  छेड़छाड़ के मामले 3347 दर्ज हुए जिनमें से 1445 तो घरों के अंदर के ही मामले हैं. ये मामले 2012 की तुलना में पांच गुना ज्यादा है.
ये आकड़े दिल्ली के ही है. जहां जन-आदोलन के लिए इतनी भीड़ इकट्टी तो हो गई.  लेकिन दावे के साथ कहा जा सकता है कि वो इकट्ठी भीड़ सिर्फ दिखाने के लिए ही रही होगी. अगर वे सभी लोग खुद ही यह सोच लेते कि वे महिलाओं का सम्मान करेंगे. उनकी इज्जत करेंगे.  छेड़छाड़ नहीं करेंगे. रेप नहीं करेंगे तो यहां कुछ और ही आंकड़े होते. अगर उस भीड़ ने थोड़ी भी सीख ली होती तो आज ये आकड़े देखने को नहीं मिलते.

पहले मेरे दिमाग में यह बात थी कि शिक्षा का स्तर ऊंचा हो तो इस अपराध में कमी हो सकती है. लोग पढ़े लिखे होंगे तो उनकी सोच इन सब हरकतों से परे होगी लेकिन तरूण तेजपाल और जस्टिस गांगुली ने इसे भी गलत करार दे दिया. इन लोगों ने यह साबित कर दिया कि जब इंसान यह ठान ले कि उसे अपराध करना है तो शिक्षा का कोई मतलब नहीं रह जाता. खैर...,

जो तथ्य सामने आए हैं वे तो और भी शर्मिंदा करने वाले हैं. लोग अपनी बहू-बेटियों के लिए चिंतित रहते हैं. कई बार कहते हुए भी सुना जाता है कि हमारे घर की बेटिंया बाहर सुरक्षित नहीं है. लेकिन ये आकड़े तो कुछ और ही कह रहे हैं. यहां तो महिलाएं घर में ही सुरक्षित नहीं है. यह सच्चाई भी है. ऑफिस से बचे तो रास्ते...रास्ते से बचे तो गली-मोहल्ले... वहां से भी बच निकले तो घर... अब घर से ज्यादा सुरक्षित जगह कहां होगी जहां पनाह ली जा सके...लेकिन जब घर ही असुरक्षित हो तो कहां जाएंगे?

कहीं ना कहीं घरों के अंदर हो रहे इस रेप की वजह का कारण साफ है. महिलाएं इस बात को लेकर डरती हैं कि अगर मामला दर्ज कराया तो लोग क्या कहेंगे. पहले तो उन्हें डराया धमकाया जाता है. वे खुलकर बोल नहीं पाती. शिकायत नहीं दर्ज करा पाती क्योंकि उन्हें डर रहता है कि पता चलने के बाद समाज उन्हें किस नजर से देखेगा? उनका भविष्य क्या होगा? लेकिन अब समय यह सब सोचने का नहीं है. अपने लिए लड़ने का है. महिलाओं के जागने का है. खुद को इन सब पचड़े से निकालकर खुद के बलबूते अपनी जगह बनाने का है. डरने का नहीं डराने का है. खुलकर बोलने का है. अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के विरोध में आवाज उठाने का है. अगर आप खुद के लिए नहीं लड़ेंगे तो कोई और आपकी मदद नहीं करेगा. इसलिए उठो..जागो..आवाज बुलंद करो और खुद के लिए लड़ो.

Saturday, January 04, 2014

हाय तौबा मचाने वालों- घर और गाड़ी से ऊपर की सोचो...

जैसे ही यह खबर आई कि केजरीवाल दस कमरों वाला डुप्ले घर ले रहे हैं कुछ लोगों में खलबली मच गई. लोगों का कहना यह था कि चुनाव से पहले तो केजरीवाल ने कहा था कि वह घर नहीं लेंगे, उनके मंत्री सरकारी गाड़ी नहीं लेंगे. अब जब लोगों ने उनके सादगी को देखकर उन्हें जनमत दे दी वह सरकारी घर और गाड़ी लेने जा रहे हैं. मुझे समझ नहीं आ रहा कि लोगों को मंत्रियों की दिनचर्या उनके घर, उनकी गाड़ी वगैरह में इतनी दिलचस्पी क्यों है...अरे जनमत दिया है बदलाव के लिए तो पहले वह तो होने दो... हाय तौबा करने की क्या जरूरत.

बदलाव के लिए जरूरत होती है धैर्य की सब कुछ अचानक ही नहीं हो जाता . आज कांग्रेस और बीजेपी दोनों के पास जब बोलने के लिए कुछ नहीं बचा तो इन छोटी-छोटी बातों को लेकर ही टुट रहे हैं.

मुझे नहीं लगता कि अगर केजरीवाल 10 या फिर 15 कमरों वाले घर में रहे से कुछ ज्यादा फर्क पड़ने वाला है. देखना ही है तो थोड़ा इंतजार किजिए और काम देखिए. केजरीवाल को भी सिर्फ कुछ लोगों की आलोचनाओं पर ध्यान ना देते हुए अपने काम पर ध्यान लगाना चाहिए. कहते हैं ना विपक्षी होते ही इसलिए है कि वह आप पर बगुले की तरह निगाहें गड़ा कर बैठे रहें और मौका मिलते ही निगलने की कोशिश करें. यह तो उनका काम ही है जैसा कि हमने पहले दिन दिल्ली विधानसभा में भी सुना बीजेपी के डॉ. हर्षवर्धन को. वह किस तरह की बचकानी बाते बोल रहे थे जिसे सुनकर हसी आ रही थी कि इन्हें हो क्या गया है. खैर..,

जब शपथ ग्रहण के लिए मेट्रो से अऱविंद केजरीवाल गए तो कई नेताओं ने यह भी कहा कि यह सिर्फ दिखावा है. कुछ का कहना था कि इससे आम जनता को परेशानी हो रही है. अब जब मंत्री सरकारी गाड़ी ले रहे है तो वही लोग हाय तौबा मचा रहे हैं. अगर ये सारे नेता पब्लिक ट्रांसपोर्ट का प्रयोग करने लगे तो वे अपना और जनता दोनों का समय बर्बाद करेंगे.  समझदारी इसी में है कि उन्हें थोड़ा समय दिया जाए और अपने ढ़ंग से काम की आाजादी भी.

दिल्ली की जनता को भी इन बातों पर ध्यान ना देतें हुए सोचना चाहिए कि कम से कम पहले से कुछ तो बदलाव आ रहा है.  लोग अपनी शिकायतें और परेशानियों को लेकर खुद मुख्यमंत्री के घर तक पहुंच तो पा रहे हैं.  एक मुख्यमंत्री होने के नाते अरविंद केजरीवाल के पास सरकारी गाड़ी, सुरक्षा और घर तीनों चीजें ही होनी चाहिए. यह एक मुख्यमंत्री की जरूरत भी है और सरकार की जिम्मेदारी भी कि वह सीएम की सुरक्षा को एवही ना ले.


जनता और नेताओं को घर, गाड़ी से ऊपर उठकर सोचना चाहिए. इस तरह हाय तौबा मचाने से सरकार का समय भी बर्बाद हो रहा है और लोगों का भी . जितने समय में अब अफसर केजरीवाल के लिए छोटा घर बनाने और सर्च करने में लगेगा उस समय में वे लोगों की बेहतरी के लिए कुछ काम कर लेते.