Monday, July 11, 2011

'We hate love stories...'

'खाप पंचायत में प्रेमी जोड़े की हत्या का ऐलान',
प्रतिष्ठा बचाने के लिए किया बेटी का कत्ल,
खाप पंचायत का तुगलकी फरमान जारी, शादी-शुदा को दिया भाई-बहन बनने का आदेश.

ऐसी खबरें आए दिन सुनने को मिल जाती हैं. कई बार तो खाप पंचायत के फैसले मानवता को झकझोर कर रख देने वाले होते हैं. सामाजिक प्रशासन प्रणाली से जु़डी खाप पंचायतें, जो खासकर हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के गांवों में प्रचलित हैं, सगोत्रीय विवाह और प्रेम विवाह की कड़ी विरोधी हैं. और इनके फैसले की नारफरमानी करने वालों को कई बार अपनी जान तक गंवानी पड़ती है.


दरअसल,. लेकिन, इसे दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि समय के बदलने के साथ साथ इन खाप पंचायतों के मायने भी बदल गए. शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में विकास एवं प्रगति के नए मापदंड स्थापित होने लगे. शहरी व ग्रामीण लोगों के रहन-सहन, खान-पान में बदलाव तो आया, परंतु ठीक इसके विपरीत पंचायत तथा खापों में कोई कोई आधुनिक सोच पैदा नहीं हुई, ना ही कोई बदलाव आया. बजाय इसके ये पंचायतें तालिबानी रास्ते पर चलती नजर आने लगीं.


गांव में आमतौर पर युवा वर्ग तथा महिलाएं गांव के बड़े-बुजुर्गों की पूरी इज्‍जत करते हैं. लेकिन शायद बुजुर्ग इस सम्मान को सम्मान या आदर न समझकर यह समझ लेते हैं कि गांव का युवा वर्ग और महिलाएं उनसे डरते व भय खाते हैं इसलिए सम्मान देते हैं. शायद पंचायतों के बुजुर्गों की यही सोच उन्हें अपने दक़ियानूसी सोच से अलग होने नहीं देती. तभी यह खाप पंचायत के सरगना हुक्के क़ी गुड़गुड़ाहट और धुएं के बीच ऐसे फैसले सुना डालते हैं जो दूर तक किसी वास्तविक मुजरिम के विरुद्ध सुनाने योग्य भी नहीं होते.


इन पंचायतों द्वारा ऐसे कई फैसले दिए जा चुके हैं, जिससे ना केवल समाज में खलबली पैदा होती है बल्कि न्यायपालिका, शासन व प्रशासन भी इसके सामने लाचार नजर आने लगता है. हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पंचायतों नजर में एक समान गोत्र में विवाह करना तो सबसे बड़ा अपराध माना जाता है. हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसे कई प्रेमी जोड़े जिन्होंने अपने गांव के हुक्का गुड़गुड़ाने वाले पंचायतों के भय की अनदेखी कर विवाह रचाने का ‘दु:साहस’ किया तो सिर्फ उन्हें ही नहीं उनके साथ साथ उनके परिजनों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है.


इन पंचायतों व खापों के भटकाव का दरअसल एक कारण यह है कि इन पंचायतों में आज भी परंपरावादी, अनपढ़, दबंग, जिद्दी तथा दूसरों की बातों को पूरी तरह अनसुनी करने की जहनियत रखने वाले लोग ही हावी हैं. जो अपनी सोच को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते और सिर्फ अपन  बातों पर ही टिके रहना चाहते है भले ही अपने जिद की कीमत किसी की मौत ही क्यों ना हो.


पहली बार बालीवुड ने खाप पंचायत पर फिल्म बनाने का मन बनाया है. इस फिल्म के जरिए अब खाप पंचायतों की मनमानी और उनके तुगलकी फैसले पर्दे पर भी नजर आएगा. फिल्म खाप के आदेशों पर ऑनर किलिंग पर आधारित है. खाप फिल्म में उस दुनिया की कहानी है, जिसमें पुराने रीति रिवाजों को तोड़ने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाता है. 29 जुलाई को रिलीज होने जा रही इस फिल्म में मुख्य भूमिका ओम पुरी और नवोदित अभिनेत्री युविका चौधरी ने निभाई है.


लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ फिल्म भर बन जाने से इन पंचायतों की मानसिकता पर कोई फर्क पड़ेगा? क्या इनकी अमानवीय हरकतों और फैसलों में कोई बदलाव आएगा. कोर्ट के बार-बार दिशा-निर्देश के बाद भी पंचायतों के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है. ज़ाहिर है कि पंचायत के लिए कोर्ट का आदेश कोई मायने नहीं रखता. क्योंकि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट इन पंचायतों के फैसलों पर प्रतिबंध लगा चुकी है, उच्चतम न्यायालय ने खाप पंचायतों को गैर कानूनी भी घोषित कर दिया है और यह कहा है कि झूठी शान के नाम पर युवाओं की हत्या अमानवीय है. लेकिन फिर भी इन पर कोई असर दिखाई नहीं दे रहा.


अभी से ही हरियाणा के जोटो ने इस फिल्म का विरोध करना शुरू कर दिया है. अखिल भारतीय जाट महासभा का कहना है, 'फिल्म में सर्व खापों को तालिबानी दिखाया गया है. खापों ने हमेशा समाज और देश हित में फैसले लिए हैं. हमारी पूरी कोशिश होगी की पूरे देश में फिल्म रिलीज न हो.' यह सुनकर तो सिर्फ ऐसा लगता है कि काश! ऐसा होता. काश! खाप पंचायतों ने हमेशा समाज और देश हित में फैसले लिए होते तो आज उनकी अस्तित्व बचाने की बात हम ना कर रहे होते. कितना अच्छा होता कि  अगर ए पंचायत हमारी न्याय व्यवस्था को चुनौती देने के बजाय सही फैसले देकर न्याय व्यवस्था की सहायता कर रहे होते. खैर....



सही मायने में देखें तो पंचायत का रूप और मायने अब दोनों ही बदल गए हैं. जिस मकसद से इनको बनाया गया था वह तो अब इनके दायरे में भी नहीं आता. इन पंचायतो का काम सिर्फ अमानवीय फैसले सुनाना, किसी को मौत के घाट उतार देने तक सीमित होकर रह गया है. अब इनका अस्तित्व खतरें में है. पंचायतों को आज के युग में अगर अपनी विश्वसनीयता, लोकप्रियता, दबदबा तथा मान मर्यादा कायम रखनी है तो उन्हें सबसे पहले अपने पूर्वाग्रहों तथा परंपरावादी दक़ियानूसी विचारों से ऊपर उठना होगा. पंचायतें अगर अपने खोए हुए अस्तित्व को पाना चाहती हैं, अगर वह अपने लगातार खोते जा रहे सम्मान, इज्जत को दूबारा लाना चाहती हैं तो उन्हें अमानवीय फैसले सुनाने के बजाए ऐसे फैसले सुनाने चाहिए जिनसे समाज व देश का कुछ कल्याण हो सके. इन्हें हमारे देश की न्याय व्यवस्था को चुनौती देने के बजाय अपने में बदलाव लाते हुए न्यायपालिका की सहायता करनी चाहिए.

Wednesday, July 06, 2011

बचेगी लाज या लूटेगी लाज ?


आज भी बलात्कार के मामलों की सुनवाई के दौरान अदालतों में यह दलील पेश की जाती है कि बलात्कार की वजह लड़की या महिला के छोटे छोटे और भड़काऊ कपड़े हैं. लेकिन शायद दलील देने वालो को यह भी पता होना चाहिए कि बलात्कार सिर्फ उन्हीं लड़कियों या महिलाओं के साथ नहीं होता है जो छोटे कपड़े पहनती है बल्कि साड़ी, सलवार सूट पहनने वालों के साथ भी होता है. यह जरूरी नहीं है कि जब कोई लड़की भड़काऊ कपड़े पहन रही है या सेक्सी लग रही है तो वह किसी को सेक्स के लिए आमंत्रित कर रही हैं या फिर पुरूष इसे देखकर अपने आप पर काबू ना कर पाये.
अहम सवाल यह है कि नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले पुरूष का चरित्र इतना कमजोर क्यों है कि वह इस हद तक गिर जाता है. वह यह भूल जाता है कि उसकी नैतिक जिम्मेदारियां क्या हैं? उसकी संस्कृति क्या है? ऐसे में नैतिकता और संस्कृति की जिम्मेदारियां महिलाओं के सिर पर ही क्यों गढ़ दी जाती हैं? और अपनी बेशर्मी और दरिंदगी को छुपाने के लिए वह यह कहने से भी बाज नहीं आता कि यह भड़काऊ कपड़ो की वजह से हो गया. भड़काऊ कपड़ो की बात तब कहां चली जाती है जब आये दिन यह मामला सामने आता है कि 4साल की मासूम बच्ची के साथ बलात्कार हुआ. मासूम बच्ची तो भड़काऊ पहनावे के साथ किसी को आमंत्रित करने नहीं जाती.


24 जनवरी 2011 को टोरंटो में ऐसे ही एक महिलाओं के भावनाओं को आहत करने वाली और उनकी स्वतंत्रता पर ही लगाम लगाने वाली एक घटना सामने आई. एक पुलिस अधिकारी ने महिलाओं को सलाह दी, “महिलाओं को अपने साथ होने वाले यौन उत्पीड़न से बचने के लिए स्लट की तरह कपड़े नहीं पहनने चाहिए.” इस बात का वहां की महिलाओं ने जमकर विरोध किया. इसके खिलाफ महिलाओं ने एक वॉक किया जिसका नाम स्लट वॉक दिया गया. लेकिन यह वॉक सिर्फ टोरंटो में ही नहीं बल्कि ऑस्‍ट्रेलिया के मेलबर्न के अलावा मानिट्रयल, कार्डिफ, एडिनरा, न्यूकसैल और ग्लासगो जैसे दुनिया के कई शहरों में भी महिलाओं ने निकाला.

महिलाओं के खिलाफ रेप जैसे संगीन अपराधों के विरोध में दुनिया भर में तेजी से मशहूर हो रहा स्लटवॉक आंदोलन अब भारत में भी दस्तक दे चुका है. अब भारत में पहली बार स्लटवॉक भारत में बेशर्मी मोर्चा के नाम से होने जा रहा है. इस अनोखे विरोध प्रदर्शन के आयोजकों का मानना है कि यहां पर लोग स्लट (वेश्या) से गलत मतलब समझेंगे और क्‍योंकि अंग्रेजी शब्द होने के वजह से कुछ लोग इसे समझ ही नहीं पायेंगे इसलिए इसे 'बेशर्मी मोर्चा' का नाम दिया गया.

हालांकि, भारत में इसके नाम को लेकर भी जमकर बहस चल रही है. कुछ लड़कियों का कहना है कि जब हम अपने सम्मान के लिए लड़ रहे हैं तो फिर गलत नाम क्यों लिया जाए. जबकि कुछ की नजर में यह नाम उपयुक्‍त है. किसी के कपड़े पहनने का तरीका खुले विचार और लाइफ स्टाइल से कोई स्लट नहीं बन जाता.
इतिहास गवाह है जब सहनशीलता अपनी चरम सीमा पर होती है तो विरोध के स्वर उठते हैं. और विरोध के तरी के ऐसा रूप तब ही अख्तियार करते है जब किसी चीज की हद हो जाती है . नारी की सहमशक्ति की सीमाएं जब टूटती है तो वह ऐसा ही प्रचंड रूप धारण करती है. भारत में हो रहे इस स्लटवॉक का संदेश उन स्त्रियों के लिए है जो चुपचाप अपने ऊपर हो रहे अत्याचार और बलात्कार जैसे घटनाओं को सहती रहती है और घूटकर जीने को मजबूर कर दी जाती हैं.

दिल्ली में इसकी शुरूआत दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा उमंग सभरवाल ने किया है. सभरवाल ने दोस्तों के साथ मिलकर फेसबुक पर स्लटवॉक दिल्ली 2011 का पेज बनाया. जिसमें कहा गया है कि जब भी महिलाओं के साथ ऐसी कोई घटना होती है तो उस पीड़ित लड़की या महिला में ही खांमिया ढ़ूढ़ा जाता है. जैसे रात को बाहर क्यों गई? छोटे कपड़े क्यों पहने? इसी मानसिकता को बदलने के लिए यह वॉक किया जायेगा.

इस वॉक के लिए दिल्ली में 25 जून का दिन तय किया गया था लेकिन अब यह 24 जुलाई को कनॉट प्लेस में होगा. चुकि इसे फेशबुक पर जोर शोर से सपोर्ट मिल रहा है इसलिए आयोजक इसकी सफलता को लेकर चिंतित नहीं है. इसे सिर्फ लड़कियों का ही नहीं बल्कि लड़को का भी सपोर्ट मिल रहा है.

उमंग सभरवाल का कहना है, “भारत में जो लड़किया परंपरागत नियमों में नहीं बंध कर रहना चाहतीं सबसे पहले उन्हें बेशर्मी की दुहाई दी जाती है. उनको बेशर्म चरित्रहीन, कूल्टा आदि कहा जाता है. हम इसी दोहरी मानसिकता के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, जो लड़कियों की सुरक्षा का हवाला देकर पुरूषों के गलत व्यवहार को बढ़ावा देते हैं. लड़का हो या लड़की, सबकी सेक्सुएलिटी का समान तरीके सम्मान करना चाहिए. किसी लड़की को उसके कपड़ो के लिए शर्मसार कैसे कर सकते हैं. इसी बेशर्मी के खिलाफ यह मोर्चा है.”

एक सवाल पर कि क्या यहां भी और देशो की तरह छोटे कपड़े पहनकर ही प्रदर्शन किया जायेगा, पर सभरवाल ने बताया कि यह मोर्चा टोरंटो स्लटवाक से प्रेरित जरूर है लेकिन इसका प्रारूप भारत की संस्कृति और सभ्यता को ध्यान में रखकर ही तैयार किया जा रहा है. यह कोई अंग प्रदर्शन की परेड नहीं है ना ही हम अंग प्रदर्शन को बढ़ावा दे रहे हैं बल्कि इस वाक में लड़किया जिन कपड़ो में सहज महसूस करती है उसमें आ सकती हैं. वह शार्टस हों या सलवार कमीज या फिर जींस-टाप. यह मुद्दा कपड़ो का नहीं है. भारत में महिलाएं दूसरे देशों की तरह छोटे और तंग कपड़ों में नहीं बल्कि 'सही कपड़ों' में स्लटवॉक करेंगी.

इस संदर्भ में कुछ लोगों का कहना है कि पता नहीं भारतीय समाज में यह मोर्चा सही संदेश दे पायेगा या नहीं. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो इसको पूरे जोर शोर के साथ विरोध कर रहे हैं. तो कोई तो यह भी कहने से हिचक रहा कि इससे तो बलात्कार के मामले बढ़ेंगे ही. लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या बेशर्म पुरूष को रत्ती भर भी अपनी इस करनी का एहसास होगा? कहीं महिलाएं एक मजाक बनकर तो नहीं रह जायेंगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह पश्चिमी सभ्यता को बढ़ावा दे और हमारी सभ्यता एक इसमें कहीं ओझल हो जाये. ऐसा ना हो विरोध के इस तरीका अपने मूल मूद्दे से भटक जाये और यह पुरूषों के लिए शोषण की नई परिभाषा पेश कर दे.

अंबिका रॉय, छात्रा
"इस वॉक से लोगों की मानसिकता पर कुछ खास असर नहीं पड़ने वाला है क्योंकि अभी तो ये शुरूआती दौर है. इस पर बहस काफी दिनों से चल रही है. यह सिर्फ एक औरत के अस्मत की बात ही नहीं है. अब यह मुद्दा दोनों सेक्स के बीच की लड़ाई हो गई है. मूलत: यह पुरूष और औरत के अहम की लड़ाई है. इससे लोगों की मानसिकता पर शायद ही कोई असर पड़े. हां, इतना जरूर है कि यह लोगों को इस समस्या की तरफ आकर्षित जरूर करेगा.”

संगीता तोमर, मीडियाकर्मी
"कपड़े के आधार पर हम किसी के चरित्र को नहीं माप सकते. हमें अपना जीवन, पहनावा खान-पान चुननेकी स्वतंत्रता है. कपड़ा हर इंसान वही पहनता है जिसमें वह सहज महसूस करता है. बदलते समय के साथ लड़कियों का पहनावा भी बदला है परंतु बलात्कार की समस्या ना तो बदली हैं और ना ही नई है. तो फिर क्यों किसी लड़की के बलात्कार होने पर उसके पहनावे को निशाना बनाया जाता है जबकि बलात्कार तो तब भी होते थे जब महिलाएं पूरे कपड़े पहनती थी.”